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________________ 85 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह लख तुष समान तन भिन्न, अक्षय शुद्धातम। आराधे निर्मम होय, कारण परमातम ||गुण मूल.॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं नि. स्वाहा। निष्कम्प मेरु सम चित्त, काम विकार न हो। लहुँ परम शील निर्दोष, गुरु आदर्श रहो।।गुण मूल.॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो कामबाण विध्वंसनाय पुष्पं नि. स्वाहा।। निर्दोष सरस आहार, माँहि उदास रहें। हैं निजानन्द में तृप्त, हम यह वृत्ति लहें। गुण मूल अठाइस युक्त, मुनिवर को ध्यावें। अपना निग्रंथ स्वरूप, हम भी प्रगटावें॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं नि. स्वाहा। निर्मल निज ज्ञायक भाव, दृष्टि माँहिं रहे। कैसे उपजावे मोह, ज्ञान प्रकाश जगे।गुण मूल.॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो मोहान्धकारविनाशनाय दीपं नि. स्वाहा। तज आर्त रौद्र दुर्ध्यान, आतम ध्यान धरें। उनको पूजें हर्षाय, कर्म, कलंक हरें।गुण मूल.॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा। निश्चल निजपद में लीन, मुनि नहिं भरमावें। निस्पृह निर्वांछक होय, मुक्ति फल पावें॥गुण मूल.॥ ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा। चक्री चरणन शिर नाय, महिमा प्रगट करें। लेकर बहुमूल्य सु अर्घ्य, हम भी भक्ति करें ।।गुण मूल. ।। ॐ ह्रीं श्री त्रिकालवर्ती आचार्य, उपाध्याय, साधु, सर्वमुनिवरेभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं नि. स्वाहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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