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________________ आध्यात्मिक पूजन- विधान संग्रह शुद्धातम का ध्यान धरि, नाशँ सर्व विकार । पूजूँ धारूँ भक्ति से, रत्नत्रय अविकार ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यक्रत्नत्रयधर्माय अष्टकर्मदहनाय धूपं नि. स्वाहा । सिंचन कर चारित्र तरू, पाऊँ शिवफल सार । पूजूँ धारूँ भक्ति से, रत्नत्रय अविकार ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यक्रत्नत्रयधर्माय मोक्षफलप्राप्तये फलं नि. स्वाहा । अर्घ्य अभेद सुभक्तिमय, परमानन्द दातार । पूजूँ धारूँ भक्ति से, रत्नत्रय अविकार ॥ ॐ ह्रीं श्री सम्यक्रत्नत्रयधर्माय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. स्वाहा । श्री सम्यग्दर्शन (वीरछन्द) आतम दर्शन सम्यग्दर्शन, अहो धर्म का मूल है । हो नि:शंक धारूँ निज में ही, नाशे भव का शूल है ॥ निर्वाछक हो ग्लानि त्यागूँ, रहूँ अमूढ़ सु सत्पथ में । उपगूहन कर करूँ स्थितिकरण, स्व-पर का शिवपथ में ॥ करूँ सहज वात्सल्य धर्म की, मंगलमयी प्रभावना । ये ही अष्ट अंग युत समकित हो न कदापि विराधना ॥ ॐ ह्रीं श्री अष्टाङ्ग सम्यग्दर्शनाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. स्वाहा । श्री सम्यग्ज्ञान निज में निज का अनुभव होवे, निश्चय सम्यग्ज्ञान हो । है निमित्त व्यवहार जिनागम, से हो तत्त्वज्ञान जो ॥ शुद्ध उच्चारण सदा करूँ अरु, शुद्ध अर्थ अवधारूँ मैं । उभय शुद्धि धरि योग्य काल में, ही स्वाध्याय सम्हारूँ मैं ।। सदा बढ़ाऊँ गुरु का गौरव, यथा योग्य बहुमान करूँ । विनय पूर्वक संशयादि तजि, विकसित सम्यग्ज्ञान वरूँ | ॐ ह्रीं श्री अष्टविध सम्यग्ज्ञानाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यं नि. स्वाहा । Jain Education International For Private & Personal Use Only 62 www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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