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________________ 59 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह औषधि अभय अहार सु जान, ज्ञानदान सब में परधान । ज्ञान बिना भ्रमता तिहुँ लोक, आत्मज्ञान से पावे मोक्ष । निज को निज पर को पर जान, ज्ञानमयी कर प्रत्याख्यान । सर्वदान दे हो निग्रंथ, उत्तम त्याग धरे सो सन्त ।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमत्यागधर्मागाय अयं निर्वपामीति स्वाहा। हूँ मैं एक शुद्ध चिन्मात्र, अन्य न मम परमाणु मात्र। मोहादिक औपाधिक भाव, मेरे नहिं मैं ज्ञानस्वभाव ।। मैं स्वभाव से आनन्द रूप, द्विविध परिग्रह दु:ख स्वरूप। परिग्रह त्याग आकिंचन्य धर्म, धारि मुनीश्वर नाशें कर्म । श्रावक भी परिमाण कराहिं, परिग्रह में किंचित् रुचि नाहिं। यों उत्तम आकिंचन सार, पूजो धारो भव्य संभार ॥ ॐ ह्रीं श्री उत्तमआकिंचन्यधर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा। उत्तम ब्रह्मचर्य अविकार, पूजों धर्म शिरोमणि सार । कामभाव दुर्गति को मूल, भव-भव में उपजावे शूल। लहे न चैन करे कृत निंद्य, कामासक्त बढ़ावे बंध। तातें शील बाढ़ नौ धार, अपनो ब्रह्म स्वरूप निहार । त्यागो दुखमय इन्द्रिय भोग, पावो ज्ञानानन्द मनोग। जयवन्तो ब्रह्मचर्य अनूप, धारे सो होवे शिवभूप।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मागाय अयं निर्वपामीति स्वाहा। समुच्चय जयमाला मोह क्षोभ बिन परिणति, ही दशलक्षण धर्म। भेदज्ञान करि धारिये, तजि क्रोधादि अधर्म । (तर्ज-हे दीन बन्धु श्रीपति...) दशलाक्षणीक धर्म सहज सुःखकार है। आनन्दमयी यह धर्म अहो मुक्तिद्वार है। दशलाक्षणीक धर्म ही नाशे विकार है। जिनवर प्रणीत धर्म करे भव से पार है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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