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________________ 31 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह अस्थिरताजन्य विकार मिटें, मैं शरण आपकी हूँ आया। बहुमानभावमय धूप धरूँ, निष्कर्म तत्त्व मैंने पाया। ॐ ह्रीं श्री वीतरागदेवाय अष्टकर्म विनाशनाय धूपं नि. स्वाहा। है परिपूर्ण सहज ही आतम, कमी नहीं कुछ दिखलावे। गुण अनन्त सम्पन्न प्रभु, जिसकी दृष्टि में आ जावे॥ होय अयाची लक्ष्मीपति, फिर वाँछा ही नहीं उपजावे। स्वात्मोपलब्धिमय मुक्तिदशा का सत्पुरुषार्थ सु प्रगटावे ।। अफलदृष्टि प्रगटी प्रभुवर, बहुमान आपका आया है। निष्काम भावमय पूजन का, विभु परमभाव फल पाया है। ॐ ह्रीं श्री वीतरागदेवाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।। निज अविचल अनर्घ्य पद पाया, सहज प्रमोद हुआ भारी। ले भावार्घ्य अर्चना करता, निज अनर्घ्य वैभव धारी॥ चक्री इन्द्रादिक के पद भी, नहिं आकर्षित कर सकते। अखिल विश्व के रम्य भोग भी, मोह नहीं उपजा सकते॥ निजानन्द में तृप्तिमय ही, होवे काल अनन्त प्रभो! । ध्रुव अनुपम शिव पदवी प्रगटे, निश्चय ही भगवन्त अहो ! ।। ॐ ह्रीं श्री वीतराग देवाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अयं नि. स्वाहा। जयमाला (छन्द-चामर तर्ज- मैं हूँ पूर्ण ज्ञायक...) प्रभो आपने एक ज्ञायक बताया। तिहूँ लोक में नाथ अनुपम जताया।।टेक।। यही रूप मेरा मुझे आज भाया। ___महानन्द मैंने स्वयं में ही पाया। भव-भव भटकते बहुत काल बीता। रहा आज तक मोह-मदिरा ही पीता ॥ फिरा ढूँढ़ता सुख विषयों के माहीं। मिली किन्तु उनमें असह्य वेदना ही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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