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________________ 239 आध्यात्मिक पूजन-विधान संग्रह महावीर भगवान का अर्घ्य इस अर्घ्य का क्या मूल्य है अनर्घ्य पद के सामने? उस परम-पद को पा लिया, हे पतित-पावन आपने ॥ संतप्त-मानस शान्त हों, जिनके गुणों के गान में । वे वर्द्धमान महान जिन विचरें हमारे ध्यान में । ॐ ह्रीं श्री वर्द्धमानजिनेन्द्राय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । पंच-बालयति का अर्घ्य सजि वसुविधि द्रव्य मनोज्ञ, अर्घ्य बनावत हैं । वसुकर्म अनादि संयोग, ताहि नसावत हैं । श्री वासु पूज्य-मल्लि-नेमि, पारस वीर अति । न| मन-वच-तन धरि प्रेम, पाँचों बालयति ।। ॐ ह्रीं श्री वासुपूज्य-मल्लिनाथ-नेमिनाथ-पार्श्वनाथ-महावीर पंचबालयतितीर्थकरेभ्योः अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । रत्नत्रय का अर्घ्य आठ दरव निरधार, उत्तम सों उत्तम लिये। जनम रोग निरवार, सम्यक् रत्नत्रय भनँ । ॐ ह्रीं सम्यक्रत्नत्रयाय अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा । श्री शान्तिनाथ भगवान एवं अष्ट बलभद्र भगवंतों का अर्घ्य ज्येष्ठ कृष्ण की चतुर्दशी को पाया स्वामी मोक्ष अटूट। सम्मेदशिखर की कुन्दप्रभ कूट से, पाया पद निर्वाण प्रभु ।। वंदूं विजय अचल सुधर्म अरु, सुप्रभ श्री सुदर्शन नाथ। नंदी नंदीमित्र रामचन्द्र, बलभद्रों को मैं नाऊँ माथ ।। कोटि कोटि मुनियों के चरणाम्बुज, वंदूं अति हर्षाय। जल-फलादि वसुद्रव्य अर्घ्य ले, भावसहित पूजू मन लाय ।। ॐ ह्रीं श्री शांतिनाथ, विजय, अचल, सुधर्म, सुप्रभ, सुदर्शन, नंदी, नंदीमित्र अरु रामचन्द्र बलभद्र जिनेन्द्रभ्यो अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्य निर्वपामीति स्वाहा। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003170
Book TitleAdhyatmik Poojan Vidhan Sangraha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRavindra
PublisherKanjiswami Smarak Trust Devlali
Publication Year2008
Total Pages242
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Worship, Religion, Ritual, & Vidhi
File Size8 MB
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