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________________ 116 क्रमबद्धपर्याय : निर्देशिका की मुख्यता से अपने स्व-रूप का निर्णय होता है, जिसमें वह द्रव्य-क्षेत्र-कालभाव को यथावत् अर्थात् कथञ्चित् भिन्न और कथञ्चित् अभिन्न जानता है। उसमें भी वह अभेद को मुख्य करके निजरूप तथा भेद को गौण करके पररूप जानता है। यही परमशुद्धनिश्चयनय अथवा परमभावग्राहीशुद्ध द्रव्यार्थिकनय का विषय है। परन्तु नय में अपर पक्ष गौण रहता है, उसका निषेध नहीं होता; जबकि दृष्टि का स्वरूप निर्विकल्प प्रतीति मात्र है, उसमें मुख्य-गौण करने का स्वभाव ही नहीं है। दृष्टि में सदैव ज्ञायक ही मुख्य रहता है, उसमें पर्याय अर्थात् भेद नहीं है - इत्यादि सभी कथन ज्ञान की प्रधानता से दृष्टि के विषय को अस्तिनास्ति से बताते हैं। प्रश्न 7. निम्न कारिक की सन्दर्भ सहित व्याख्या कीजिए? अलंघ्यशक्तिर्भवितव्यतेयं, हेतु द्वयाविष्कृतकार्यलिङ्गा। अनीश्वरोजन्तुरहं क्रियातः संहत्य कार्येष्विति साध्ववादी॥ आचार्य समन्तभद्र ने स्वयंभूत स्तोत्र के 33वें छन्द में उक्त कारिका के माध्यम से भवितव्यता की महिमा बनाई है। वे कहते हैं कि भवितव्यता की शक्ति अलंघ्य है, अर्थात् कोई भी व्यक्ति भवितव्यता अर्थात् होने योग्य कार्य का उल्लंघन करके उस कार्य को होने से रोक नहीं सकता और उसके स्थान पर दूसरा कार्य नहीं कर सकता। जो होना है वही होगा अथवा जो हो रहा है वही होना था। __ यदि कोई प्रश्न करे कि आप यह कैसे कह सकते हैं कि जो हो रहा है वही होना था? इसके समाधान के लिये ही आचार्यदेव ने हेतुद्वयाविष्कृत कार्यलिङ्गा' पद का प्रयोग किया है। हेतुद्वय अर्थात् उपादान और निमित्त अथवा अन्तरङ्ग और बहिरङ्ग कारणों की सन्निधि में उत्पन्न होने वाला कार्य ही भवितव्यता को सूचित करता है। विवक्षित कार्य से बढ़कर और कौन सा प्रमाण हो सकता है कि यह होना था; क्योंकि वह तो प्रत्यक्ष में हो ही रहा है। यह निरीह संसारी प्राणी भवितव्यता के बिना अनेक सहकारी कारणों को मिलाकर भी कार्य करने में समर्थ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003169
Book TitleKrambaddha Paryaya Nirdeshika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2003
Total Pages132
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Karma
File Size5 MB
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