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________________ 89 सम्यक्चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयलों के सन्दर्भ में ... पण्डितजी के उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि उनके चिन्तन में अभिप्राय की भूल का स्थान कितना महत्वपूर्ण है, अन्यथा वे द्रव्यलिंगी मुनि की हीनता के प्रतिपादक आगम प्रमाण न देते। द्रव्यलिंगी के अभिप्राय में विपरीतता सम्बन्धी इस विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि अभिप्राय अर्थात् श्रद्धा की परिणति, क्रिया और शुभभावों से निरपेक्ष और स्वतन्त्र होती है। विषय-कषायरूप क्रिया और परिणामवाले सम्यग्दृष्टि का अभिप्राय सही होता है तथा महाव्रतादिरूप क्रिया और परिणामवाले मिथ्यादृष्टि द्रव्यलिंगी मुनि का अभिप्राय विपरीत होता है। विपरीत अभिप्रायवाले जीव को निगोद से लेकर नवमें ग्रैवेयक तक जाने योग्य परिणाम हो सकते हैं, तथा यथार्थ अभिप्रायवाला जीव भी देवगति में असंख्यात वर्षों तक रह सकता है। प्रश्न :- ‘अभिप्राय की भूल' प्रकरण प्रारम्भ करते हुए पहले आप लिख आए हैं कि हमारा उद्देश्य किसी की निन्दा-प्रशंसा करना नहीं है; फिर आप यहाँ द्रव्यलिंगी मुनि की हीनता क्यों बता रहे हैं ? उत्तर :- अरे भाई ! यहाँ तो उसके प्रथम गुणस्थानवर्ती होने से उसके मोक्षमार्गी न होने की यथार्थ स्थिति का ज्ञान कराया है। इसमें निन्दा का आशय नहीं है। हमने भी तो अनन्त बार ऐसी दशा धारण की है, अतः यह हमारी स्वयं की बात है, दूसरों की नहीं। पण्डितजी ने स्वयं आठवें अधिकार के चरणानुयोग प्रकरण में द्रव्यलिंगी को सम्यग्दृष्टि द्वारा वन्दनीय कहा है। उनका मूल कथन निम्नानुसार है : “यहाँ कोई प्रश्न करे-सम्यक्त्वी तो द्रव्यलिंगी को अपने से हीनगुणयुक्त मानता है, उसकी भक्ति कैसे करे ? समाधान :- व्यवहारधर्म का साधन द्रव्यलिंगी के बहुत है और भक्ति करना भी व्यवहार ही है। इसलिए जैसे- कोई धनवान हो, परन्तु जो कुल में बड़ा हो उसे कुल अपेक्षा बड़ा जानकर उसका सत्कार करता है; Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003168
Book TitleKriya Parinam aur Abhipray
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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