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________________ 83 सम्यक्चारित्र के लिए किए गए विपरीत प्रयत्नों के सन्दर्भ में ... उपर्युक्त विचारों के रूप में वह कर्मफलचेतनारूप प्रवर्तन करता है। प्रश्न :- उपर्युक्त विचार करने में भूल क्या है ? क्या ज्ञानी ऐसा विचार नहीं करते? उत्तर :- यहाँ मात्र विचारों की बात नहीं चल रही है; अपितु विचारों की परतों के तल में बैठे हुए अभिप्राय की बात चल रही है। परिणामों को स्वरूप में स्थिर करने के लिए कदाचित् ज्ञानियों को भी ऐसे विचार हो सकते हैं, परन्तु वे इन विचारों की अपेक्षा को भी जानते हैं। उक्त विचारों के पीछे अज्ञानी और ज्ञानी के अभिप्राय को निम्न तालिका द्वारा स्पष्ट समझा जा सकता है : विचार अज्ञानी का अभिप्राय ज्ञानी का अभिप्राय व्रत-शील-संयम ये मुक्ति के मार्ग हैं। यद्यपि ये मुक्ति के कारण आदि धारण करना नहीं हैं, तथापि पाप से चाहिए। बचने के लिए ये भाव आए बिना नहीं रहते। उपसर्ग और परिषह यदि इन्हें सहन नहीं यह बाह्य-संयोग दुःख का सहन करने योग्य हैं। करेंगे तो नरक जाना कारण नहीं है। राग दुःख का पड़ेगा, तथा इन्हें सहन कारण है, अतः आत्मा में करने पर स्वर्ग/मोक्ष स्थिर होकर राग का अभाव की प्राप्ति होगी। करना चाहिए। पहले बाँधे हुए कर्म मैं कर्मों के फल को मैं परद्रव्यों का कर्ता-भोक्ता शान्तिपूर्वक भोगना भोगने वाला हूँ। नहीं हूँ, मात्र ज्ञाता हूँ। चाहिए। विषय-भोगादि विषयों के सेवन में विषयसेवन में सुख नहीं, त्याग करने योग्य आनन्द तो है, परन्तु दुःख ही है।आत्मा के इनके सेवन से अवलम्बन से ही सच्चा नरक में जाना पड़ेगा, सुख प्रगट होता है। अतः अतः इनका त्याग आत्मा की रुचि होने से करना योग्य है। विषय की रुचि ही नहीं है। हैं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003168
Book TitleKriya Parinam aur Abhipray
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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