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________________ 64 क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन “कितने ही जीव पहले तो बड़ी प्रतिज्ञा धारण कर बैठते हैं; परन्तु अन्तरंग में विषय-कषाय वासना मिटी नहीं है, इसलिए जैसे-तैसे प्रतिज्ञा पूरी करना चाहते हैं। वहाँ उस प्रतिज्ञा से परिणाम दुःखी होते हैं। जैसेकोई बहुत उपवास कर बैठता है और पश्चात् पीड़ा से दुःखी हुआ रोगी की भाँति काल गँवाता है, धर्म साधन नहीं करता; तो प्रथम ही सुधरती जाने उतनी ही प्रतिज्ञा क्यों न ले ? दुःखी होने में आर्तध्यान हो, उसका फल अच्छा कैसे लगेगा ? अथवा उस प्रतिज्ञा का दुःख नहीं सहा जाता तब उसके बदले विषय-पोषण के लिए अन्य उपाय करता है। जैसे- तृषा लगे तब पानी तो न पिये और अन्य शीतल उपचार अनेक प्रकार करे, व घृत तो छोड़े और अन्य स्निग्ध वस्तु का उपाय करके भक्षण करे। - इसीप्रकार अन्य जानना'। क्रिया और परिणामों का सुमेल कैसा होता है- इसका दिग्दर्शन करते हुए पण्डितजी पृष्ठ 240 पर लिखते हैं - “सच्चे धर्म की तो यह आम्नाय है कि जितने अपने रागादिक दूर हुए हों, उसके अनुसार जिस पद में जो धर्म क्रिया सम्भव हो, वह सब अंगीकार करे। यदि अल्प रागादिक मिटे हों तो निचले पद में ही प्रवर्तन करे; परन्तु उच्च पद धारण करके नीची क्रिया न करे।" परिणामों के सुधरने-बिगड़ने की चर्चा के उपरान्त अभिप्राय की चर्चा करते हुए पृष्ठ 238 पर पण्डितजी लिखते हैं - ".......और यदि परिणामों का भी विचार हो तो जैसे अपने परिणाम होते दिखाई दें उन्हीं पर दृष्टि रहती है, परन्तु उन परिणामों की परम्परा का विचार करने पर अभिप्राय में जो वासना है, उसका विचार नहीं करते।" __उपर्युक्त गद्याँश में परिणामों की परम्परा' और अभिप्राय की वासना' ये दो शब्द विचारणीय हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003168
Book TitleKriya Parinam aur Abhipray
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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