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________________ 60 क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन उक्त गद्याँश से स्पष्ट होता है कि धर्म का मर्म पहिचाने बिना अर्थात् अभिप्राय की विपरीतता मिटे बिना किया जाने वाला धर्माचरण कैसा और अन्तरंग परिणाम कैसे होते हैं ? इसलिए धर्म करने के लिए सर्वप्रथम वस्तुस्वरूप को यथार्थ समझकर विपरीत अभिप्राय अर्थात् मिथ्यात्व का नाश करना चाहिए। ____ पूज्य गुरुदेव श्री कानजीस्वामी द्वारा 45 वर्षों तक वस्तु-स्वरूप का विशद् विवेचन किया गया है। हम सब उनके द्वारा प्रतिपादित तत्त्वज्ञान के रसिक हैं तथा यथाशक्ति उसका अभ्यास भी करते हैं। फिर भी हम अपनी क्रिया और परिणामों में सन्तुलन स्थापित नहीं कर पाते, क्योंकि हम अभिप्राय की विपरीतता को गहराई से नहीं समझ पाए। हमारी भक्ति, पूजा, स्वाध्याय आदि कार्यक्रम जब सार्वजनिक स्तर पर होते हैं, तब तो क्रिया और परिणामों का असन्तुलन और अधिक बढ़ जाता है। हम इतना भी विवेक नहीं रख पाते कि भगवान के सामने कौन -सी भक्ति बोलना चाहिए और कौन-सी नहीं ? वास्तव में जिन-प्रतिमा के समक्ष उनका गुणानुवाद ही होना चाहिए। प्रसंगानुसार अपनी लघुता और दोषों का वर्णन भी आ जाता है तथा जिनेन्द्र भगवान से अपने मोहराग-द्वेष का अभाव होकर वीतरागभाव प्रगट होने की कामना भी की जाती है; परन्तु देखा जाता है कि कुछ लोग भगवान के सामने खड़े होकर स्तवन आदि के रूप में अहमिक्को खलु शुद्धो.... जैसी गाथायें बोलने लगते हैं। ऐसी आध्यात्मिक गाथायें तो पाठ करने के लिए उपयोगी हैं, भगवान को सुनाने के लिए नहीं। जरा विचार कीजिए कि 'जे दिन तुम विवेक बिन खोए....' अथवा 'हम तो कबहुँ न निज घर आए....' जैसे उपदेशी भजन अथवा शुद्धात्म तत्त्व की महिमा का उल्लेख करने वाली रचानायें क्या जिन-प्रतिमा के समक्ष बोलने योग्य हैं ? ये सब चीजें अलग से बैठकर पाठ करने की तथा शास्त्र सभाओं में प्रवचनोपरान्त बोलने की हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003168
Book TitleKriya Parinam aur Abhipray
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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