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________________ 54 क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन यह पहले ही कहा जा चुका है कि निश्चयाभास, व्यवहाराभास और उभयाभास मान्यता अर्थात् अभिप्राय की विपरीतता है, क्रिया और परिणाम की नहीं। उक्त चारों प्रकार के व्यवहाराभासी में पहले और दूसरे भोले या भद्र मिथ्यादृष्टिं' कहे जा सकते हैं, क्योंकि उनमें धर्म करने की भावना है। तीसरे प्रकार के जीव धर्म तो करना ही नहीं चाहते, परन्तु आजीविका आदि लौकिक प्रयोजन की पूर्ति के लिए अपने को धर्मात्मा दिखाने के लिए धर्माचरण करते हैं, अतः वे 'बेईमान मिथ्यादृष्टि' हैं। प्रश्न :- यदि आजीविका के लिए धर्म साधन करना मिथ्यात्व है तो आज अनेक संस्थाओं में जो विद्वान या अन्य कर्मचारी वैतनिक सेवायें देते हैं वे भी मिथ्यात्व के पोषक कहे जायेंगे ? उत्तर :- मोक्षमार्ग प्रकाशक के सातवें अधिकार में तीसरे प्रकार के व्यवहाराभासियों का वर्णन करते हुए पण्डित टोडरमलजी ने मुनिराजों के सन्दर्भ में स्वयं प्रश्न उठाकर समाधान करते हुए पृष्ठ 219 में कहा है: “वे आप तो कुछ आजीविकादि प्रयोजन विचारकर धर्मसाधन नहीं करते। उन्हें धर्मात्मा जानकर कितने ही स्वयं भोजनादि उपकार करते हैं, तब तो कोई दोष है नहीं। तथा यदि आप भोजनादिक का प्रयोजन विचारकर धर्म साधता है, तो पापी है ही।" वास्तव में यह व्यवहाराभास भी अभिप्राय में होता है, क्रिया में नहीं। कुछ लोग ‘खाने के लिए जीते हैं और कुछ लोग 'जीने के लिए खाते' हैं, खाने और जीने की क्रिया समान होने पर भी दोनों के अभिप्राय में अन्तर है। आजीविका के लिए धर्म साधन करना अलग बात है और धर्म प्रचार के संकल्प पूर्वक सारा जीवन उसमें समर्पित करके जीवन-यापन के लिए वेतनादि लेना अलग बात है। दोनों परिस्थतियों में अभिप्राय का अन्तर है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003168
Book TitleKriya Parinam aur Abhipray
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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