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________________ क्रिया, परिणाम और अभिप्राय का जीवन पर प्रभाव 45 अनन्त सुख नहीं होता; तथापि मिथ्यात्वजन्य अनन्त दुःख का तो नाश हो ही जाता है अर्थात् दुःख में अनन्तता नष्ट हो जाती है और अल्पता रह जाती है। प्रश्न:- यदि क्रिया का फल शून्य बताया जाएगा तो लोग पाप-क्रिया से क्यों डरेंगे ? क्या इससे स्वच्छन्दता का प्रसंग नहीं आएगा ? तथा जिनवाणी में भी पाप-क्रिया छोड़ने का उपदेश क्यों दिया जाता है ? उत्तर:- क्रिया की भाषा में भी परिणाम की ही बात कही जाती है। क्योंकि कथन तो व्यवहार की मुख्यता से होता है और व्यवहार के द्वारा परमार्थ को ही बताया जाता है। यदि यह कहा जाए कि रात्रि भोजन मत करो तो इसका आशय यही होगा कि रात्रि भोजन का भाव भी मत करो। इसीप्रकार दर्शन, पूजन, व्रतादि करने का उपदेश दिया जाता है तो इसका आशय यह होता है कि ऐसे भाव करो। अतः जो लोग कथन पद्धति को समझते हैं, वे स्वच्छन्दी नहीं होंगे। जिनवाणी में परिणामों का उपचार क्रिया पर करके पाप-क्रिया छोड़ने का उपदेश दिया जाता है। अतः क्रिया का फल शून्य कहने मात्र से स्वच्छन्दता का प्रसंग नहीं आयेगा, अपितु परिणाम का फल मिलता है-- ऐसा जानकर पात्र जीव परिणाम सुधारने का उपाय करेगा, जिससे कषाय मन्द होगी, अतः अनुचित क्रिया का निषेध स्वतः हो जाएगा। प्रश्नः- जो कथन-पद्धति नहीं समझेंगे, वे तो स्वछन्दी हो जायेंगे; अतः क्रिया की प्रधानता से कथन ही नहीं करना चाहिए ? उत्तर:- जिसे आत्महित की सच्ची भावना होती है वह जिनवाणी की कथन पद्धति को समझकर ही उसका अर्थ करता है। जब हम लौकिक जीवन में भी कथन का भाव ग्रहण करने की चतुराई रखते हैं; तो आत्महित में इस चतुराई का प्रयोग क्यों नहीं कर सकते ? यदि नहीं करते तो समझना चाहिए कि हमें आत्महित की सच्ची भावना नहीं है, हम छल कर रहे हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003168
Book TitleKriya Parinam aur Abhipray
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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