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________________ A2 क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन अनुकूल संयोगों के बीच रहकर भी जीव संक्लेशरूप परिणामों से दुःख का और प्रतिकूल संयोगों के बीच रहकर भी यह जीव मन्दकषाय रूप भावों से सुख का वेदन करता है। एक मजदूर कठिन परिश्रम करके रूखी रोटी खाकर आनन्द का अनुभव करता है, तथा पत्थर की शिला पर भी चैन की नींद सोता है। जबकि एक सेठ आलीशान वातानुकूलित भवन में रहते हुए भी फैक्ट्री की हड़ताल से चिन्ताग्रस्त होने के कारण विविध मिष्ट-व्यंजन खाते हुए भी न तो उनका आनन्द ले पाता है और न डनलप के गद्दों पर लेटते हुए भी चैन की नींद सो पाता है। परिणामों के अनुकूल क्रिया हो या न हो, परन्तु तीव्र कषाय में तीव्र दुःख तथा मन्द कषाय में मन्द दुःख होता है। तीव्र दुःख से मन्द दुःख होने पर हम अपने को सुखी अनुभव करते हैं। राग द्वेष ही हमारे सुखी-दुःखी होने में मूल कारण हैं । इसप्रकार हम परिणामों से सुखी-दुःखी होते हैं और उन्हीं के अनुसार लौकिक प्रवृत्ति भी करते हैं। इसप्रकार सुख-दुःख का सम्बन्ध भी औदयिक परिणामों से है ; बाह्य संयोग और क्रियाओं से नहीं। प्रश्नः- बाह्य-क्रिया का फल शून्य और परिणामों का फल शतप्रतिशत क्यों है ? उत्तर:- वास्तव में क्रिया का कर्ता आत्मा है ही नहीं, क्योंकि बाह्यक्रिया में आत्मा की और आत्मा में बाह्य-क्रिया की नास्ति है, अर्थात् उनमें परस्पर अत्यन्त अभाव है। जब क्रिया की अपेक्षा आत्मा का अस्तित्व ही नहीं है, तब वह क्रिया का कर्ता कैसे हो सकता है ? और जब वह क्रिया का कर्ता नहीं है, तब उसे क्रिया का फल बिल्कुल न मिले - यह बात न्याय-संगत ही है। परिणामों का कर्ता आत्मा ही है, अतः वही उनके फल अर्थात् सुख Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003168
Book TitleKriya Parinam aur Abhipray
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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