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________________ क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन उपसर्ग दूर करने का भाव ज्ञानी और भद्र परिणामी अज्ञानी दोनों को हो सकता है। यदि उसे ज्ञानी माना जाए तो उसके अभिप्राय में यही वृत्ति होगी कि 'मैं शुद्ध चैतन्य स्वरूप भगवान आत्मा हूँ, मुनिराज का उपसर्ग दूर करना मेरी क्रिया नहीं है तथा ऐसा शुभभाव भी मेरा स्वरूप नहीं है' - ऐसे अभिप्राय के साथ-साथ उसके परिणाम इसप्रकार के हुए कि – 'धन्य हैं ये मुनिराज, जो अपने स्वरूप की साधना कर रहे हैं और धिक्कार है इस सिंह को, जो ऐसे महान धर्मात्मा पर उपसर्ग कर रहा है, चाहे मेरे प्राण भी क्यों न चले जायें, परन्तु मैं मुनिराज पर उपसर्ग नहीं होने दूंगा..... इसप्रकार शूकर का अभिप्राय उसके परिणामों और क्रिया से भिन्न था। इस सम्यक् अभिप्राय के कारण उसे सिंह से लड़ते समय भी आँशिक शुद्धता और संवर-निर्जरा वर्त रही थी और शुभ परिणाम से देवगति का बन्ध हो रहा था। उसके शुभ-बन्ध में उसके परिणाम निमित्त मात्र थे, परन्तु क्रिया तो जड़ शरीर में हो रही थी, अतः उस शुभ बन्ध में उसका कोई योगदान नहीं था। यदि उस शूकर को अज्ञानी माना जाए तो उपर्युक्त शुभभाव के साथसाथ वह अभिप्राय में अपने को शूकर मानकर मुनिराज का उपसर्ग दूर करने की क्रिया का कर्ता मानता था। इस विपरीत अभिप्राय के कारण उसे मिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी कषायों का बन्ध हो रहा था, परन्तु शुभ परिणामों से मरण होने से वह स्वर्ग में गया। इसप्रकार यह अत्यन्त स्पष्ट हो जाता है कि क्रिया न तो पाप-बन्ध का कारण है, न पुण्य-बन्ध का और न मुक्ति का कारण है । क्रिया तो 'पेकिग' है और परिणाम 'माल' है । जैसा माल होगा,वैसी ही पेकिंग कही जाएगी। क्रिया तो परिणामों की ही अभिव्यक्ति है अर्थात् हम मन के निमित्त से होने वाले रागादि भावों को वचन और काय के माध्यम से व्यक्त करते Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003168
Book TitleKriya Parinam aur Abhipray
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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