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________________ 12 क्रिया, परिणाम और अभिप्राय : एक अनुशीलन ग्रन्थ में भी मान्यता के अर्थ में अभिप्राय शब्द का प्रयोग किया गया है। अतः यहाँ मान्यता' के अर्थ में ग्रहण करना ही अभीष्ट है। प्रश्न :- क्रिया परिणाम और अभिप्राय में योग का क्या स्थान है ? उत्तर :- मन-वचन-काय के निमित्त से होने वाले आत्मप्रदेशों के कम्पन को योग कहते हैं। योग भी उत्पाद-व्ययरूप होने से क्रिया ही है। परन्तु यहाँ जिस सन्दर्भ में इनकी चर्चा की जा रही है उस दृष्टि से देखा जाए तो योग जीव के योगगुण का परिणमन होने से परिणाम' कहा जाएगा। मन के निमित्त से होने वाले जीव के भाव भी परिणाम हैं, तथा वचन और काय की क्रिया 'क्रिया' कही जाएगी। ‘अभिप्राय' मन-वचन-काय की क्रिया से भिन्न है, क्योंकि यहाँ श्रद्धागुण के परिणमन को अभिप्राय कहा गया है। अभिप्राय की विपरीतता जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि इस जीव को मनुष्य भव की प्राप्ति अनन्त बार हुई है और ज्ञानी गुरु अथवा सर्वज्ञ भगवान की साक्षात् देशना का लाभ भी अनन्त बार प्राप्त हुआ है। गुरु के उपदेश से प्रेरित होकर इस जीव ने सम्यग्दर्शन-ज्ञान चारित्र को मुक्ति का कारण जानकर उनकी प्राप्ति के लिए प्रयत्न भी अनेक बार किये हैं। परन्तु इसने सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र का वास्तविक (निश्चय) स्वरूप न जानकर उनके बाह्य (व्यवहार) स्वरूप को ही परमार्थ मानकर, उन्हीं की प्राप्ति का पुरुषार्थ किया है। रत्नत्रय के अन्तरंग स्वरूप को न जानने से ही इसके पुरुषार्थ की दिशा विपरीत रही, इसीलिये तथाकथित पुरुषार्थ करने पर भी इसे मोक्षमार्ग की प्राप्ति नहीं हुई। प्रश्न:- पिछले अध्याय में आपने श्रीमद् राजचन्द्रजी की पंक्ति 'बिन सद्गुरु कोय न भेद लहे' उद्धृत की है, जबकि यहाँ कह रहे हैं कि इस जीव को ज्ञानी गुरु या सर्वज्ञ भगवान की देशना अनन्त बार प्राप्त हुई, फिर भी इसे सच्चा मोक्षमार्ग प्रगट नहीं हुआ। क्या इन दोनों कथनों में विरोधाभास नहीं है ? Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003168
Book TitleKriya Parinam aur Abhipray
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAbhaykumar Jain
PublisherTodarmal Granthamala Jaipur
Publication Year2006
Total Pages114
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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