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________________ चक्षुष्मान् ! तुम शरीरधारी हो । इसका अर्थ है - भौतिकता तुम्हारी पहली पहचान है । तुम्हारी भौतिकता में किसी को संदेह नहीं है । तुम आध्यात्मिक हो, यह वक्तव्य सही नहीं है । तुम्हें अध्यात्मिक बनना है, यह कहा जा सकता है । आत्मा तुम्हारी पहली पहचान नहीं है । स्थूल जगत् और स्थूल दृष्टि । तुम्हारा शरीर भी स्थूल है इसलिए इस जगत् में जो मूल्य शरीर का है, वह आत्मा का नहीं है । 'पहलो सुख निरोगी काया'यह कहावत है । 'पहलो सुख निरोगी आत्मा' - यह कहावत नहीं है । 'शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम्' - पहले शरीर और फिर आत्मा की बात । तुम भौतिक हो; इस सचाई को खुले दिल से स्वीकार करो । भौतिकता तुम्हें निसर्ग से प्राप्त है । उसका अपलाप करना क्यों चाहते हो ? उसमें जीते हुए भी तुम आध्यात्मिक बन पाओगे । इसलिए बन सकते हो कि इस भौतिक कलेवर के भीतर एक आत्मा है, एक चेतना है । उससे तुम संचालित हो । यदि संचालन सूत्र को पकड़ सको तो अध्यात्म की वर्णमाला का पहला अक्षर पढ़ सकोगे । शरीरविज्ञानी मानते हैं -- शरीर की सारी प्रवृत्तियों - बोलना, चलना आदि-आदि का संचालन मस्तिष्क से होता है । मस्तिष्क का संचालक कौन है ? यह अभी एक पहेली है । तत्काल मृत व्यक्ति का मस्तिष्क अवयव की दृष्टि से वैसा का वैसा है पर उसने शरीर का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003167
Book TitleAdhyatma ki Varnmala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1993
Total Pages70
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Sermon, & Spiritual
File Size2 MB
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