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________________ १६ समण दीक्षा : एक परिचय मैं चतुर्विध समण साधना - स्वाध्याय, ध्यान, अनुप्रेक्षा और आसन की उपसंपदा स्वीकार करता हूं / करती हूं । मैं श्रुत सामायिक तथा दर्शन सामायिक की उपसंपदा स्वीकार करता हूं/करती हूं। इसी सामायिक सूत्र के आधार पर समण - समणी अपनी साधना की भूमिका मजबूत कर महाव्रतों की ओर प्रयाण करते हैं । वन्दना विधि भारतीय जनमानस में संन्यस्त जीवन का एक अलग वैशिष्ट्य है। जिस क्षण संसार के बन्धनों को तोड़कर मुमुक्षु उस निर्बन्ध पथ पर प्रस्थित होता है, उसी क्षण वह सबके लिए पूजनीय / वन्दनीय बन जाता है। प्रत्येक परम्परा में संन्यस्त लोगों की पूजा विधि, वन्दन विधि अलग-अलग होती है। जैनधर्म में साधु-साध्वी को तीन बार प्रदक्षिणा सहित 'तिक्खुत्तो पाठ' से वन्दन करने की विधि है । समणश्रेणी के लिए इस विधि का प्रयोग अनुचित तो नहीं, किन्तु उसकी अलग पहचान देने वाला नहीं था । अतः चिन्तनपूर्वक निर्धारित की गई इस विधि में समण - समणीवृन्द को वन्दना करने के लिए दो सम्मान्य शब्दों 'वन्दामि नम॑सामि' ( वन्दना करता हूं, नमस्कार करता हूँ)' का चयन किया गया। प्रत्युत्तर में उनके लिए 'अर्हम्' शब्द का निर्धारण किया गया है। 'अर्हम्' शब्द वीतरागता का बोधक है । इसका मंत्र के रूप में जप भी किया जाता है । नामकरण दीक्षित होने वाला मुमुक्षु अपने सांसारिक घर, परिवार, रिश्ते-नाते, सबको अलविदा कह, सर्वथा नए जीवन में प्रवेश करता है । यह उसका दूसरा जन्म होता है । ब्राह्मण द्विज कहलाता है । द्विज का अर्थ है दो जन्म | एक जन्म मां के गर्भ से लेता है और दूसरा यज्ञोपवीत संस्कार से । साधु भी द्विज कहलाता है । एक जन्म शरीर का होता है दूसरा जीवन का । शरीर को मां जन्म देती हैं, जीवन को गुरु । जीवन के बिना शरीर के जन्म की बहुत सार्थकता नहीं होती । दीक्षा मुमुक्षु का दूसरा जन्म है। नया जन्म, नया काम । पूर्वनामों की पहचान नये अर्थों का उद्घाटन करे इसके लिए दीक्षित होने वाले व्यक्ति को नई संज्ञा दी जाती है। सांस्कृतिक तथा अर्थबोध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003166
Book TitleSaman Diksha Ek Parichay
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSanmatishree Samni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages58
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size2 MB
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