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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म हे कंठ में रही हुई मनोहर पांचवीं मुष्टि के बचे हुए सिर पर जटा-जूट केशों से निकलती हुई काले केशों की नीलोत्पल समान मालाओं से युक्त ! जिननाथ (सामान्य केवलियों के भी स्वामी)! आपको नमस्कार है ।।५५०॥ हे आदीश्वर-ऋषभदेव प्रभो ! योगीश्वरों के लीन मन से (ध्यान योग्य) लक्षित स्वरूपवाले योगीश्वर लयगत मनलक्षित (योग में लयलीन) लक्षण स्वरूप ! हे भवकूप में पतित जन्तुओं के तारक जिननाथ ! आपको नमस्कार हो ॥५५१।। इससे स्पष्ट है कि श्री ऋषभदेव के सिर पर जटाजूट था और दाढ़ी-मूछों का झुंचन के कारण सर्वथा अभाव था । जैन परम्परा ऐसा भी मानती है कि दीक्षा लेने के बाद तीर्थकर के केश और नख बढ़ते नहीं हैं। यद्यपि दिगम्बर परम्परा ऋषभ के जटा-जूट को स्वीकार नहीं करती तथापि उनके साहित्य में ऋषभ की जटा-जूट वाली प्रतिमानों की विद्यमानता के प्रमाण उपलब्ध हैं । यथा ___ यतिबृषभ (समय वीर निर्वाण ११ शताब्दी) ने तिलोयपण्णत्ति में लिखा है कि ऋषभ की जटा-जट वाली प्रतिमा पर गंगा अवतरण हुई। रविषेण (वीर निर्वाण १३वीं शताब्दी) ने पद्मचरित्र में लिखा है कि- “वाताद्धृता जटस्तस्य रेजाकुलमूर्तयः । (३।२८८) । पुन्नाट संघीय जिनसेन (वीरात् १४वीं शती) ने हरिवंश पुराण (६।२०४) में लिखा है कि- सप्रलम्ब जटा-भार भ्राजिष्णु । अपभ्रंश भाषा के सुकुमाल चरित्र में लिखा है कि ___ पढम् जिणवरु णविविभावेण जड-मउड विहूसिउ विसह मयणारि णासुणु । अमरासुरणर-थुय-चलणु। सत्ततत्त्व णवपयत्थ णवणयहि पयासणु लोयालोय पयासयरु जसु उप्पण्णउ णांणु । सो पणवेप्पिणु रिसह जिणु अक्खय–सोक्ख णिहाणु ॥ अतः ऋषभ के सिर पर जटा-जूट उनके कंधों पर लटकते हुए केश, और दाढ़ी-मूछों का अभाव श्वेतांबर परम्परा की पुष्टि करती है और इससे यह भी फलित होता है कि अत्यन्त प्राचीन काल से पार्श्वनाथ और महावीर से भी पहले इस मान्यता को मानने वाले जैनों ने इनकी स्थापनाएं की थीं। शिव के सिर पर भी जटाजूट-वांधों पर लटकते केश, दाढ़ी मूंछों का अभाव तथा योगियों के ध्यान योग्य एवं स्वयं भी ध्यानारूढ़ योगी हैं । ये सब लक्षण ऋषभ और शिव में समानरूप से इस बात की पुष्टि करते हैं कि ऋषभ और शिव ये दोनों रूप ऋषभदेव के ही दीक्षा लेने के बाद के हैं । (३) गले और केशों के जटा-जूट में सांपों के वेष्टन श्री ऋषभदेव ने मुनि अवस्था में देव-दानव, पशु-पक्षियों, सर्पादि विषैले प्राणियों, मानवों के बहुत उपसर्ग सहन किये थे। जिससे उनकी वीतरागता और समता के प्रत्यक्ष दर्शन होते थे। तथा इन्द्रियों रूप महान् सर्पो को जीत कर समभाव से प्रात्मा में लीन होकर तपश्चर्या में लीन हो गए थे। हमारे इस मत का समर्थन लिंगपुराण' ने भी किया है। यथा-- 1. लिंगपुराण शिवतत्त्व (पद) की मीमांसा की दृष्टि से एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ है । इसमें १६३ अध्याय और ११००० श्लोक हैं। उनमें भगवान शंकर के ३८ अवतारों का वर्णन है। इसके ४७वें अध्याय के श्लोक १६ से २३ में यह उल्लेख है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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