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________________ साध्वी प्रियदर्शनाश्री ५४१ करके जैन कन्या हायर सेकेन्ड्री स्कूल अम्बाला में अध्यापिका बन गई । अंग्रेजी में बी० ए० तक परीक्षाएं भी घर पर ही शिक्षण प्राप्त कर पास की। इसको बचपन से ही माता-पिता से धार्मिक संस्कार मिले थे । विवाह करने की बिल्कुल रुचि नहीं थी और संसार से विरक्त होकर दीक्षा लेने की भावना बल पकड़ती गयी । धार्मिक पुस्तकों का अभ्यास, साधु-साध्वियों के सम्पर्क से धर्माभ्यास में उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगी । साथ ही साथ वैराग्य भावना में भी उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई। वि० सं० २०१७ का चौमासा साध्वी पुष्पाश्री, साध्वी जसवन्तश्री जी का कई ठाणो के साथ अम्बाला शहर में था। जसवंतश्री जी की प्रेरणा से वैराग्य भावना को अधिक उत्तेजन मिला । पद्मा ने अपने माता-पिता से दीक्षा लेने की भावना प्रकट की, पर पहले तो माता-पिता दीक्षा केलिए बिल्कुल राजी नहीं हुए। इधर पद्मा ने प्रखंड ब्रह्मचर्य की साध्वी जी से दृढ़ प्रतिज्ञा ले ली तथापि माता-पिता और पुत्री में सहमती न हो पाई । जब माता-पिता को अपनी पुत्री के ब्रह्मचर्य व्रत लेने का पता चला तो उन्होंने पुत्री से कहा, यद्यपि तुमने विवाह नहीं करना तो भी तुम घर पर ही रहकर धर्माराधन कर सकती हो। हमारे घर में किसी भी प्रकार की कमी नहीं है । तुम्हें सब प्रकार की सुख-सुविधाएं प्राप्त हैं । तुम्हें नौकरी करने की भी क्या आवश्यकता है। घर में रहकर जो चाहो धर्माराधना में खर्च करो इसके लिये कोई मनाही नहीं है। तीर्थयात्राएं करो, साधु-साध्वियों के दर्शन के लिये जानो। जितना भी धर्म का ऊंचे से ऊंचा अभ्यास करना चाहो उसके लिये उच्चकोटि के जनदर्शन के अध्यापक की भी व्यवस्था कर देंगे । अपने घर में भी रहकर सेवाकार्य करती ही रहती हो, आगे भी करती रहो, इसमें भी हमें कोई आपत्ति नहीं है। हम तुम्हें घर के किसी भी काम को करने के लिये कभी नहीं कहेंगे । दीक्षा लेने में क्या पड़ा है यदि चाहोगी तो घर में रहकर भी साधु अवस्था से भी बढ़कर सेवा का लाभ ले सकोगी। पनुश्चः यदि तुम्हारे मन में यह विचार आता हो कि 'मैं किसी पर अवलम्बित होकर बोझ बनकर नहीं रहना चाहती तो भी तुम स्कूल में अध्यापिका का स्वतन्त्र रूप से कार्य कर रही हो, इस सेवा कार्य से भी तुम्हें बहुत अच्छा वेतन मिल रहा है और आगे चलकर वेतन में वृद्धि भी होती रहेगी। फिर तुम्हें किसी का भार बनकर रहने का प्रश्न ही नहीं होता। पद्मा तो वैराग्य रंग में चुकी थी। अब उसे एक दिन भी भारी पड़ रहा था। इसने अपने माता-पिता को स्पष्ट कह दिया कि मैंने शीघ्रातिशीघ्र अवश्य दीक्षा लेनी है, यही मेरा अंतिम निर्णय है । अब तो मात्र आपकी प्राज्ञा को ही प्रतीक्षा है। अधिक क्या कहूं । पिता श्री मनोहरलाल जी ने पद्मा को धार्मिक अभ्यास कराने के लिये जैनदर्शन के सुयोग्य विद्वान श्रावक पंडित श्री हीरालाल जी दुग्गड़ (इस इतिहास के लेखक) को नियुक्त किया। इसने पंचप्रतिक्रमण सार्थ, चार प्रकरण, तीन भाष्य, धर्म बिन्दु, तत्वार्थधिगम सूत्र, वैराग्यशतक आदि का सार्थ सविवेचन अभ्यास किया। श्री दूगड़ जी के पढ़ाने की शैली से ज्ञान और वैराग्य का खूब विकास हुमा । धार्मिक संस्कारों ने दृढ़ श्रद्धा का स्थान पा लिया । श्रद्धाज्ञान और वैराग्य से प्रोत-प्रोत अभ्यास कराने की प्रापकी उत्तम शैली ने मानो माता के दूध के समान काम किया। माता का दूध संतान के लिये जैसे सुरुचिकर, स्वादिष्ट और पौष्टिक होता है, तंदरुस्ती तथा निरोगता को देनेवाला होता है, उसी प्रकार आप से जनग्रंथों के अभ्यास से पद्मा खूब लाभान्वित हुई । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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