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________________ जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत अर्थात्-समुद्र जल ही है किनारा जिसका (समुद्र पर्यन्त विस्तृत) ऐसी वसुधारूपी सती वधू को छोड़कर मोक्ष की इच्छा रखने वाले इक्ष्वाकुवंशीय प्रात्मवान् सहिष्णु और अच्युत प्रभु ने दीक्षा ले ली। उन्होंने अपने अंतर्शत्रुनों को अपनी समाधि तेज से भस्म कर दिया और केवलज्ञान प्राप्त कर अचिन्त्य और तीनों लोकों की पूजा के स्थान स्वरूप अर्हत् पद प्राप्त किया। तात्पर्य यह है कि क्षत्रिय का अर्थ केवल सांसारिक विजय ही नहीं है अपितु आध्यात्मिक विजय भी है। उसके दो शव हैं, एक बाह्य है तो दूसरा आन्तरिक । एक स्थूल है तो दूसरा सूक्ष्म । एक आसान है तो दूसरा मुश्किल। दोनों का विजेता ही सच्चा क्षत्रिय है। इसीलिये तो कहा है कि-':जे कम्मे सूरा ते धम्मे सूरा"। २. प्राकृतिक अवरोध के कारण कल्पवृक्षों से भोजनादि की व्यवस्था निशेष प्रायः हो गई थी। तब भगवान ने प्रजात्रों को कृषि की शिक्षा दी। कृषि का अर्थ है- “कृषिः भूकर्षणे प्रोक्तः ।' पृथ्वी विलेखन को कृषि कहते हैं। कृषि से अन्नादि पैदा होते हैं । इसलिये अन्न, चारा, वस्त्र, इंधन तथा लकड़ी द्वारा निर्मित जीवनोपयोगी नाव, जहाज,मकान, हाट, हल प्रादि सब सामग्रियां खेती से प्राप्त रना सिखलाईं। जिससे प्राण रक्षा के लिए उपयोगी साधन सामग्री का निर्माण करना भी सिखलाया । अतः वे खेती के प्रथम प्राविष्कर्ता थे । ऋषभदेव ने केवल हल और बैल के द्वारा खेती करना ही नहीं सिखाया अपितु उत्पन्न अन्न से भोजन तैयार करने तथा खाने को विधि भी बताई। उन्होंने पशुपालन भी सिखलाया। दुधारु पशुपों को पालकर उनका चारे से पालन पोषण कर दूध प्राप्त करना भी सिखाया। तथा दूध से दही आदि मिष्टान्न तैयार करना भी सिखलाया। भोजन बनाने के लिये पात्र बनाने भी सिखलाये । अतः कोई व्यक्ति वस्त्र, पात्र, भोजन, मकान आदि के प्रभाव से पीड़ित न रहा। ३. ऋषभदेव ने लिपि और गणित की शिक्षा अपनी ब्राह्मी, सुन्दरी दोनों पुत्रियों को दी। ब्राह्मी को भाषा और लिपि को मुख्यरूप से ज्ञ न कराया। उसी के नाम पर भारत की प्राचीन लिपि को ब्राह्मी लिपि कहते हैं । भाषा विज्ञान वेत्ताओं का कथन है कि ब्राह्मी लिपि पूर्ण और सर्वग्राह्य थी। आगे चलकर इस लिपि से अनेक लिपियों का विकास हुआ। अाज की देवनागरी लिपि उसी का विकसित रूप है। ऋषभदेव ने अपनी दूसरी पुत्री सुन्दरी को मुख्य रूप से अंकों का ज्ञान करवाया। उससे गणित विद्या का विकास होकर समूचे जगत में प्रसार हुअा। आज जैन प्राचार्यों द्वारा लिखे हए गणित सम्बन्धी अनेक महत्वपूर्ण ग्रंथ विद्यमान हैं। जगद्गुरु ऋषभदेव ने पुरुषों को ७२ कलाएं और स्त्रियों को ६४ कलाएं सिखलाई। उन्होंने एक सुनियोजित व्यवस्थारूप में प्रजाओं को अनुशासित किया। उन्होंने कर्म के आधार पर समाज का वर्गीकरण किया। वे चतुर्वर्णी (क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, और ब्राह्मण) व्यवस्था के सूत्रधार बने । चाणक्य की अर्थनीति में जिस चतुर्वर्ण व्यवस्था पर अधिकाधिक बल दिया गया है, वह ऋषभदेव से प्रारंभ हो चुकी थी। 1. भगवान ऋषभदेव ने तीन वर्षों की स्थापना की और ब्राह्मण वर्ण की स्थापना ऋषभ के केवलज्ञान पाने के बाद चतुर्विध संघ की स्थापना में जो ब्रतधारी श्रावक-श्राविकाएं थे, उनको जिनऊ देकर उनके प्रथम पुत्र चक्रवर्ती भरत ने की । (कल्पसूत्र व्याख्यान ७) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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