SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 572
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रवर्तनी देवश्री जी ५२५ धन्य हैं कि जिन्होंने पंजाब भर से गुरुकुल पंजाब को प्रचुरदान दिला कर अपने विद्याप्रेम का पूर्ण परिचय दिया है। वि० सं० २००१ को हमारी चारित्रनायिका बीकानेर पधारे । प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि का चतुर्मास भी वहीं था। इस वर्ष बीकानेर में हमारी चारित्रनायिका के सप्रयत्नों और उपदेशों के प्रभाव से-(१) श्री विजयानन्द सूरीश्वर जी का जन्मजयन्ति महोत्सव, (२) प्रभु महावीर का जयन्ति महोत्सव, (३) नवपद अोली तप, (४) दीक्षा महोत्सव आदि अनेक धर्मकार्य प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी के साविध्य में बड़ी धूम-धाम तथा सफलता पूर्वक हुए। वि० सं० २००१ वैसाख सुदी ६ को प्राचार्य श्री विजयवल्लभ सूरि जी के करकमलों से श्री जैन श्वेतांबर तपागच्छ दादावाड़ी की प्रतिष्ठा समारोह पूर्वक हुई। परम गुरुभक्त प्राचार्य श्री विजयललित सूरि, तथा संस्कृत और प्राकृत के असाधारण विद्वान, इतिहास के ज्ञाता, प्राचीन साहित्य-पांडुलिपियों के संशोधक मुनि श्री चतुरविजय जी भी प्राचार्य श्री के साथ इस बीकानेर के चतुर्मास में विराजमान थे। इन्होंने भी प्राचार्य श्री के साथ पंजाव में जाना था परन्तु मुनि श्री चतुरविजय जी का स्वर्गवास बीकानेर में ही हो गया। बीकानेर के चतुर्मास के पश्चात् हमारी चरित्रनायिका अपनी शिष्या-प्रशिष्याओं के साथ पुनः पंजाब पधार गये । वि० सं० २००२ का चौमासा जंडियाला गुरु में किया। चतुर्मास के पश्चात् वि० सं० २००३ को आप गुजरांवाला पघारे । पूज्य आचार्य विजयवल्लभ सूरि भी गुजरांवाला होकर स्यालकोट अपने मुनिमंडल के साथ पधारे और वहां नवनिर्मित जैन श्वेतांबर मंदिर की प्रतिष्ठा करवाई। इस अवसर पर स्यालकोट में लुधियाना निवासी स्वर्गस्थ लाला पन्नालाल जी बंभ की विधवा धर्मपत्नी और लाला मोतीलाल मुन्हानी गुजरांवाला निवासी की पुत्री प्रकाशवंती की दीक्षा प्राचार्य श्री के वरद हाथों से हुई। नाम प्रकाशश्री रखा और साध्वी दमयन्ती श्री की शिष्या बनाई गई । प्रादर्श प्रवर्तनी जी पस्वस्थ होने के कारण गुजराँवाला में ही विराजमान रहीं __वि० सं० २००४ का चतुर्मास गुजरांवाला में किया। प्राचार्य श्री का चतुमाँस भी गुजराँवाला में ही था। देश विभाजन पंद्रह अगस्त १९४७ ई० भारतीय इतिहास में अमर है । इस दिन शताब्दियों के बाद भारत को स्वतन्त्रता प्राप्त हुई । स्वतन्त्रता के साथ ही एक दुःखित अभिशाप भी आया-वह था देश का हिन्दुस्तान और पाकिस्तान के रूप में विभाजन । विभाजन के साथ ही अनेक प्राततायी ताकतें उभर आयीं पौर सारा देश रक्तरंजित हो गया। पाकिस्तान में इस तरह निरापराध मानवों के रक्त की होली खेली गई कि युग-युग तक मानव जाति की इस नृशंस हत्या पर मानव समाज काले दाग के रूप में स्मरण करती रहेगी । लाखों व्यक्ति बेघर-बार हो गये और लाखों ललनाएं प्रनाथ हो गईं। इनके करुण-क्रन्दन से दसों दिशाएं क्रन्दित हो उठीं । इस तुफान से गुजरॉवाला भी न बच पाया। वहां के तमाम अमुस्लिम खतरे में पड़ गये। गुजराँवाला में भी लूट तथा आग लगाने की सर्वत्र वारदातें होने लगीं। समाधिमंदिर की बाहर की खिड़कियों को प्राग लगा दी गई। उपाश्रय तथा जैन मंदिर को भी नष्ट-भ्रष्ट करने के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy