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________________ मुनि विबुधविजय और बिज्ञानविजय ५११ मंदिरों का निर्माण करके आज तक उनका संरक्षण तथा उनकी उपासना और व्यवस्था का प्रखंड प्रतिनिधित्व । उपयुक्त ६ बातों में से पांच का विवेचन किया जा चुका है अब हम यहां छठे-छह आवश्यक (प्रतिक्रमण आदि) पर संक्षिप्त प्रकाश डालेंगे। जैनसमाज में मुख्य दो शाखायें हैं (१) श्वेतांबर और (२) दिगम्बर। दिगम्बर संप्रदाय के मुनि परम्परा में विच्छिन्न प्रायः पाराधना है। उनके श्रावक समुदाय में भी आवश्यक का प्रचार वैसा नहीं है जैसा श्वेतांबर परम्परा में है। दिगम्बर संप्रदाय में जो प्रतिमाधारी या ब्रह्मचारी आदि होते हैं उनमें मुख्यतया सिर्फ सामायिक करने का रिवाज देखा जाता है। शृखलाबद्ध रीति से छहों 'अावश्यकों का नियमित प्रचार जैसा श्वेतांबर परम्परा में आबाल-वृद्ध प्रसिद्ध है, वैसा दिगम्बर सम्प्रदाय में प्रसिद्ध नहीं है। अर्थात् दिगम्बर सम्प्रदाय में सिलसिलेवार छहों पावश्यक करने की परम्परा-देवसिक, रात्रिक, पाक्षिक, चतुर्मासिक और सांवत्सरिक रूप में वैसी प्रचलित नहीं है जैसी श्वेतांबर परम्परा में प्रचलित है। यानी जिस प्रकार श्वेतांबर परम्परा-सायंकाल, प्रातःकाल, प्रत्येक पक्ष के अन्त में, चातुर्मास के अन्त में और वर्ष के अन्त में स्त्रियों तथा पुरुषों का समुदाय अलग-अलग या एकत्र होकर अथवा अकेला व्यक्ति भी सिलसिले से छहों आवश्यक करता है, उस प्रकार आवश्यक करने की रीति दिगम्बर सम्प्रदाय में नहीं है । श्वेतांबरों की भी दो प्रधान शाखाएं हैं- (१) मूर्तिपूजक और (२) स्थानकमार्गी । इन दोनों शाखाओं की साधु-श्रावक दोनों संस्थानों में देवसिक, रात्रिक आदि पांचों प्रकार के आवश्यक करने का नियमित प्रचार अधिकारानुरूप बराबर चला आ रहा है। ___मूर्तिपूजक और स्थानकमार्गी दोनों के साधुनों को सुबह-शाम अनिवार्य रूप से आवश्यक करना ही पड़ता है। क्योंकि शास्त्र में ऐसी प्राज्ञा है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थंकर के साधु आवश्यक नियम से करें । अतएव यदि वे इस प्राज्ञा का पालन न करें तो साधु पद के अधिकारी ही नहीं समझे जा सकते। श्रावकों में आवश्यक का प्रचार वैकल्पिक है । अर्थात् जो भावुक और नियमवाले होते हैं, वे अवश्य करते हैं और अन्य श्रावक-श्राविकाओं की प्रवृत्ति इस विषय में ऐच्छिक है। फिर भी यह देखा जाता है कि जो नित्य आवश्यक नहीं करता वह भी पक्ष के बाद, चतुर्मास के बाद या आखिरकार संवत्सर (वर्ष) के बाद उस को यथासंभव अवश्य करता है । श्वेतांबर परम्परा में आवश्यक क्रिया का इतना आदर है कि जो व्यक्ति अन्य किसी समय धर्मस्थान में न जाता हो, वह तथा छोटे-बड़े बालक-बालिकायें भी बहुधा सांवत्सरिक पर्व के दिन धर्मस्थान में आवश्यक क्रिया करने के लिये एकत्र हो ही जाते हैं और उस क्रिया को करके सभी अपना अहोभाग्य समझते हैं। इस प्रवृति से यह स्पष्ट है कि 'पावश्यक क्रिया' का महत्व श्वेतांबर परम्परा में कितना अधिक है। इसी सबब से सभी लोग अपनी सन्तति को धार्मिक शिक्षा देते समय सब से पहले आवश्यक क्रिया सिखाते हैं । सामायिक, चतुर्शितिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग तथा प्रत्याख्यान ये छह आवश्यक हैं । इस को ठीक समझने के लिये आवश्यक किया किसे कहते हैं यह प्राध्यात्मिक क्यों है इस का यहां विवेचन करने का अवकाश नहीं है। आवश्यक क्रिया करने की जो विधि चूणि के जमाने से भी बहुत प्राचीन है और जिस का Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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