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________________ जैनधर्म की प्राचीनता और लोकमत २५ । यह फल हुआ कि जो जैन-संदर्भ ब्राह्मण ग्रंथों में थे उन्हें बाद में विकृत कर दिया गया। उदाहरण के लिये अर्हत् शब्द को ही लीजिये- इस शब्द की ब्राह्मण साहित्य में मुक्तकंठ से प्रशंसा की गई है। हनुमान नाटक में आता है कि(१) ,'अर्हन्नित्यथ जैनशासन रताः ॥" जैन शासन जिसको अर्हत् कहकर (पूजता है)। (२) "अहविर्भाष सायकानि धन्वाहन्निष्कं यजतं विश्वरूपं । अर्हन्निदं दयसे विश्वं भवभुवं न वा प्राजीयो रुद्र त्वदस्ति ॥1 अर्थात्-हे अर्हत् देव ! तुम धर्मरूपी बाणों को सदुपदेश रूपी धनुष को, अनन्तज्ञान आदि रूप प्राभूषणों को धारण किये हो। आप जगत प्रकाशक केवलज्ञान को प्राप्त किये हुए हो, संसार के जोवों के रक्षक हो, काम-क्रोधादि शत्रु समूह के लिए भयंकर हो, तथा आपके समान अन्य कोई बलवान नहीं है । (३) "अर्हतो ये सुदानवो नरो असामिषा वसः । प्र यज्ञं यज्ञियेभ्यो दिवो अर्चा मरुद्भ्यः ॥"2 अर्थात्-जो मनुष्याकार अनन्त दान देने वाले और सर्वज्ञ अर्हत् है वे अपनी पूजा कराने वाले देवों से पूजा कराते हैं । (४) 'मद्रास प्रेजीडेंसी (तमिलनाड प्रदेश) कालेज के फिलासफी के प्रोफेसर श्री ए. चक्रवर्ती एम. ए. एल. टी. ए. ने फ़िलासफी नाम के लेख में स्पष्ट लिखा है कि-- "ऋषभदेव जो आदि जिन, प्रादीश्वर भगवान के नाम से भी सम्बोधित हैं, ऋग्वेद सूक्ति में उनका अर्हत् के नाम से उल्लेख पाया है। जैन उन्हें प्रथम तीर्थंकर मानते हैं (वे ईक्ष्वाकु वंशीय क्षत्रीय थे) दूसरे (अन्य तेईस) तीर्थंकर भी सब क्षत्रिय थे।" (५) श्री स्वामी विरूपाक्ष वडियर-धर्मभूषण, पंडित, वेदतीर्थ, विद्यानिधि, एम. ए. प्रोफेसर संस्कृत कालेज इंदौर लिखते हैं कि "ईर्षा-द्वेष के कारण धर्म प्रचार को रोकने वाली विपत्तियां आने पर भी जैन शासन कभी पराजित नहीं हुआ; वह सर्वत्र विजयी ही होता रहा है। अर्हत्देव अाक्षात् परमेश्वर स्वरूप हैं। इसके प्रमाण आर्यग्रंथों में पाये जाते हैं । अर्हत् परमेश्वर का वर्णन वेदों में भी आता है।" बाद में टीकाकारों ने हनुमान नाटक सरीखे संस्कृत ग्रंय के संदर्भ के बावजूद और पूरे जैन साहित्य में पारिभाषिक शब्द के रूप में तथा वेदों में भी प्रयुक्त होने के बावजूद अर्हत् शब्द का अर्थ ही बदल दिया। ऐसी ही विकृति अरिष्टनेमि शब्द के साथ भी की गई। यजुर्वेद अध्याय ६ मंत्र २५ पृ० १४३ में 1. ऋग्वेद २।४।३३।१० पृष्ठ १३४ 2. वही पृष्ठ ३१३ 3. इंडियन रिब्यु का अक्तूबर सन् १९२० का अंक। 4. चित्रमय जगत नामक पुस्तक में। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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