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________________ ४४४ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म मार्गी फिरके ने दार्शनिक चिंतन-मनन की दिशा में तथा तार्किक अथवा किसी भी योग्य साहित्य की रचना में अपना नाम नहीं कमाया। यह विचार वास्तव में स्थानकमार्गी फिरके के लिये नीचा दिखलाने वाला है । इन सब दृष्टियों से स्थानकमार्गी फिरके को वीरपरम्परा का प्रखण्ड प्रतिनिधित्व अथवा अपेक्षाकृत विशिष्ट प्रतिनिधित्व प्राप्त करने वाला नहीं कह सकते । इसलिये अब बाकी के दो फिरकों के लिये ही विचार करना है। प्रार्य देवदत्तस्य न...। अर्थ-विजय । ॐ अर्हत् महावीर देव को नमस्कार करके राजा वासुदेव के संवत् १८ वर्ष में, वर्षा ऋतु के चौथे महीने में मिति ११ के दिन प्रार्य रोहण के द्वारा स्थापित किए गए हुए (रोहणीय) गण के, परिहास कुल के पौर्णपत्रिका शाखा के गणि आर्य देवदत्त के.......। इन उपर्युक्त सब लेखों को पढ़ने से डा० बुल्हर लिखता है कि :(१) संवत् ५ से १८ तक अथवा ईस्वी सन् ८३ से १६६-६७ के मध्यवर्ती काल में मथुरा के जैन साधुनों के अनेक गण, कुल और शाखाएं थीं। (२) तथा इन लेखों में लिखे हुए साधुनों के नाम के साथ वाचक, गणि, आर्य, प्राचार्य आदि उपाधियों का भी उल्लेख हैं । ये उपाधियाँ जैनधर्मानुयायियों उन यतियों-साधुमों को दी जाती थीं, जो साधुनों सम्बन्धी शास्त्रों [जैन-जनेतर शास्त्रों के प्रकांड विद्वान होते थे । तथा ये पदवी धारी साधुओं और श्रावकों को इन शास्त्रों को समझाने-पढ़ाने में निपुण होते थे। जिस साधु को गणि (प्राचार्य) पदवी दी जाती थी वह उस गण (गच्छ) का नेता माना जाता था। इसलिए यह उपाधि बहुत बड़ी समझी जाती थी । वर्तमान काल में भी पुरानी रीति के अनुसार प्राचार्य पदवी प्रमुख साधु को देने की पद्धति है । (३) शालाओं (गणों) में से कौटिक गण की बहुत शाखाएं हैं। इस लिए इसका बहुत बड़ा इतिहास होना चाहिए । (४) यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि इन लेखों से यह प्रमाणित होता है कि कौटिक गण ईस्वी सन् की प्रथम शताब्दी में अवश्य विद्यमान था । तथा उस समय में जैनधर्म की प्राचीन काल से चली आने वाली आत्मज्ञान वाली शिष्य परम्परा भी अवश्य विद्यमान थी। उस समय जैन साधु अपने धर्म के सदा सर्वत्र प्रसार के लिए तत्पर रहते थे तथा उस काल के पूर्व भी अवश्य तत्पर रहते होंगे ? (५) जब कि उस समय में जैन साधुग्रो में वाचक पदवीधारी भी विद्यमान थे, तो यह बात भी निःसंदेह है कि उन वाचकों से शास्त्रों का पठन-पाठन अभ्यास करने वाले साधुओं के अनेक गण (समूह) भी अवश्य विद्यमान तथा जिन शास्त्रों का पठन-पाठन होता था वे शास्त्र भी अवश्य विद्यमान थे। (६) ये लेख कल्पसूत्र में वर्णित स्थविरावली से बराबर मिलते हैं अर्थात् जिन गणों, कुलों, शाखाओं का वर्णन कल्पसूत्र में प्राता है उन्हीं गणों कुलों शाखामों का इन लेखों में उल्लेख है । अतः ये लेख निःसन्देह प्रमाणित करते हैं कि श्वेतांबर जैनों के परम्परागत शास्त्र बनावटी नहीं है । अर्थात् श्वेतांबर जैनों के शास्त्रों पर लगाये गये बनावटी के प्रारोप को ये शिलालेख मक्त करते हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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