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________________ मध्य एशिया मोर पंजाब में जैनधर्म (४) अब हम शास्त्रों के विषय को लेकर विचार करेंगे और यही सबसे अधिक महत्व का है। तीनों फ़िरकों के पास अपना-अपना साहित्य है। स्थानकमार्गी तथा श्वेतांबर इन दो फ़िरकों का कितना एक प्रागमिक साहित्य तो साधारण है जबकि दोनों फ़िरकों के मान्य साधारण प्रागमिक साहित्य को दिगम्बर फ़िरका मानता ही नहीं। वह यह कहता है कि असली प्रागमिक साहित्य क्रम-क्रम से लेखबद्ध होने से पहले ही अनेक कारणों से नष्ट हो गया। ऐसा कहकर वह स्थानकमार्गी और श्वेतांबर उभय मान्य प्रागमिक साहित्य का बहिष्कार करता है और उसके स्थान में उसकी अपनी परम्परा के अनुसार ईस्वी सन् की दूसरी शताब्दी से रचित मान्यता वाले अमुक साहित्य को आगमिक मानकर उसका पालंबन करता है। यहाँ प्रश्न यह होता हैं कि ईस्वी सन् से पहली-दूसरी सदी में रचे हुए खास दिगम्बर साहित्य को इस फ़िरके के प्राचार्यों तथा अनुयायियों ने जीवित रखा तो उन्होंने स्वयं ही असली पागम साहित्य को सुरक्षित क्यों न रखा ? असली पागम साहित्य के सर्वथा विनाशक कारणों ने उस फ़िरके के नवीन और विविध विस्तृत साहित्य का सर्वथा विनाश क्यों न किया ? ऐसा तो कह ही नहीं सकते कि दिगम्बर फ़िरके के खेद का विषय है कि आजकल के कतिपय दिगम्बर शास्त्री तथा पी० एच० डी० पदवीधर डाक्टर इन लेखों को अपनी कृतियों में अधूरे छापकर इस प्राचीन स्थापत्य को दिगम्बर सिद्ध करके जैन इतिहास के साथ खिलवाड़ कर रहे हैं। देखें जैनधर्म का प्राचीन इतिहास भाग १ दि० बलभद्र कृत तथा भाग २ दि० परमानन्द कृत । जैन इतिहास के साथ अपने पापको जैन कहलाने वाले दिगम्बर लेखकों का खिलवाड़ करना कहा तक उचित है ? सत्य इतिहास को जानने के इच्छुक अवश्य विचार करें। अब हम यहाँ इन प्रतिमाओं पर अंकित लेखों तथा प्रतिमाओं के विषय में कुछ विवरण देते हैं। १. मथुरा कैकाली टीले से प्राप्त-लखनऊ संग्रहालय में सुरक्षित शिलापट्ट नं0 J 626 हरिणिगमेशीदेव देवानन्दा की कुक्षी से भगवान महावीर को हस्त संपुट में उठाकर रानी त्रिशला का कुक्षा में रखने के लिये जा रहा है । उस समय का इसमें चित्रण है। एक तरफ मनोहर शय्या में देवानन्दा सो रही है, दूसरी तरफ़ राजभवन में पलंग शय्या पर त्रिशलादेवी सो रही है, मध्य में हरिणिगमेशीदेव प्रभु वीर को भक्ति से उठाकर रानी के पास आया है । ऐसा मनोहर दृश्य है । यह शिलापट्ट कुछ खंडित हो गया है। प्रथम लेख"सिद्ध सं० २० ग्री० १ दिन २५ कोटियतो गणतो वाणियतो कुलतो वयरियतो साखातो सिरिकातो भत्तितो, वाचकस्य आर्य संघ सिंहस्य निवर्तन दत्तिलस्य............वि...... लस्य कोडुबिणिय जयवालस्य, देवदासस्य नागदिन्नस्य च नागदिन्नाये च मातु सराविकाये दिण्णाए दाणं । ।ई। वर्धमान प्रतिमा ॥" अर्थ-विजय ! संवत् २० उष्णकाल का पहला महीना, मिति २५ को कौटिक गण, वाणिज कुल, वयरि शाखा, सिरिका विभाग के वाचक प्रार्य संघसिंह की निर्वर्तन (प्रति. ष्ठित) है। श्री वर्धमान [प्रभु] की [यह] प्रतिमा दत्तिल की बेटी वि. ला की स्त्री, जयपाल, देवदास तथा नागदिन्न (नागदत्त) की माता नागदिन्ना श्राविका ने अर्पित की। पाकिमालोजीकल रिपोर्ट में इस लेख की नकल के नीचे सर कनिंघम ने एक नोट भी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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