SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 476
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वीर परम्परा का अखण्ड प्रतिनिधित्व ४३७ का पोषण करती हैं। तीनों संप्रदायों के उपलब्ध साहित्य में ऐतिहासिक दृष्टि से भी निर्विवाद रूप से सबसे अधिक प्राचीनता के अंश सुरक्षित रखने वाले आचारांग सूत्र में हम सचेल और अचेल दोनों धर्मों का विधान पाते हैं । इन दोनों में एक पहले का है और दूसरा बाद का है इसका प्रागम में ऐसा कोई उल्लेख नहीं पाते। इसके विपरीत अचेल और सचेल दोनों धर्मों के विधान महावीरकालीन हैं ऐसा मानने के अनेक प्रमाण हैं। प्राचारांग के ऊपर से विरोधी मालूम पड़ने वाले ये दोनों विधान एक दूसरे के इतने समीप हैं-तथा एक दूसरे के ऐसे पूरक हैं जो ये दोनों विधान एक ही गहरी आध्यात्मिक धुन में से इस प्रकार फलित हुए हैं कि इनमें से एक का लोप करने पर दूसरे का वर्चस्व ही समाप्त हो जाता है और परिणाम स्वरूप दोनों विधान मिथ्या हो जायेंगे। मात्र इतना ही नहीं यदि एकान्त अचेलकत्व (नग्नत्व) में ही म निपन को स्वीकार किया जाये तो भगवान महावीर का मूल सिद्धान्त ही समाप्त हो जाता है । यह बात निर्विवाद और सर्वसम्मत है कि ऋषभदेव से लेकर महावीर पर्यन्त सब तीर्थंकरों ने चतुर्विध संघ की स्थापना करके साध-साध्वी को सर्वविरति रूप और श्रावक-श्राविका को देशविरति रूप में सम्पन्न किया। अतः आचारांग के प्राचीन भाग का ऐतिहासिक दृष्टि से अवलोकन करते हुए मैं इस निश्चय पर पाया कि अचेल धर्म के विषय में वीर परम्परा का प्रतिनिधित्व यदि विशेष यथार्थ अखंड रूप से संरक्षण किया है वह दिगम्बर फिरका नहीं अपितु श्वेतांबर और स्थानकवासी फिरकों के मान्य साहित्य में सुरक्षित है। (२) अब हम उपासना के विषय में वीर परम्परा के प्रतिनिधित्व के प्रस्तुत प्रश्न की चर्चा करेंगे। यह बात निःसंकोच कही जा सकती है कि महावीर आदि तीर्थंकरों की परम्परा के अनेक महत्वपूर्ण अंशों में मूर्ति उपासना को भी महत्वपूर्ण स्थान है । इस उपासना की दृष्टि से स्थानकमार्गी (तथा तेरापंथी) फिरका तो वीर परम्परा से वहिष्कृत ही है। क्योंकि वह प्रागमिक परम्परा, इतिहासवाद, युक्तिवाद, आध्यात्मिक योग्यता और अनेकांत दृष्टि इन सबको इन्कार करके एक या दूसरी किसी भी प्रकार की मूर्ति उपासना नहीं मानता । इसलिये उपासना के विषय में श्वेतांबर-दिगम्बर परम्परामों के बीच में ही विचार करने का अवकाश है। इसमें संदेह नहीं कि दिगम्बर परम्परा सम्मत नग्न मूर्ति की उपासना वीतरागत्व की सगुण उपासना के लिये अधिक ठीक और निराडम्बर होकर अधिक उपादेय भी हो सकती है। किंतु इस विषय में भी दिगम्बर परम्परा का मानस, विचारणा और व्यवहार की दृष्टि से एकांगी और एकान्तिक ही है । श्वेतांबर परम्परा का प्राचार-विचार और चालू पुरातन व्यवहार पर दृष्टिपात करेंगे तो हमें मालम होगा कि इसने प्राचार मथवा व्यवहार से नग्नमूति का उपासना में से बहिष्कार किया ही नही । इसलिये 1. श्वेतांबर परम्परा सचेल-अचेल दोनों अवस्थाओं को तीर्थंकरों की परम्परा मानती है किन्तु अचेल अवस्था अत्यन्त उत्कृष्ट है इसलिये बहुत ऊँची स्थिति पर पहुँचा हा मनि ही इसके पालन करने की योग्यता रखता है। वैसी योग्यता केलिये विशिष्ट संघयण, दशपूर्व की योग्यता प्रादि अनिवार्य हैं जो वर्तमान काल में संभव न होने से अचेल परम्परा का विच्छेद हो चुका है। __ स्थानकमार्गी तीर्थंकर प्रतिमा का उत्थापन तो अवश्य करते हैं। पर अपने साधनों की समाधियों तथा उन साधुओं के चित्रों को मानने के कायल हैं। महपत्ती बांधने का इतना व्यामोह है कि तीर्थंकरों, गणधरों, पूर्वाचार्यों तथा चन्दनबाला, मगावती जैसी महावीर समकालीन साध्वियों और साधुनों के मुख पर मुहपत्ती बांधे हए चित्रों को भी बना डाला है। जो सरासर पागम तथा इतिहास के विरुद्ध है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy