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________________ मुंहपत्ती चर्चा ४२५ इस गाथा का भावार्थ यह है कि- १. बोलते समय संपातिम (उड़ते हुए) जीवों का मुख में प्रवेश न हो, इस लिये मुखवस्त्रिका को मुख के आगे रखकर बोलना। २. पृथ्बीकाय के प्रमार्जन केलिये मुहपत्ती का उपयोग करना अर्थात्-जो सूक्ष्म धूली उड़ कर शरीर पर पड़ी हुई हो उसके प्रमार्जन-प्रतिलेखन केलिये म खवस्त्रिका को ग्रहण करना प्राचीन ऋषि-म नियों ने कहा है । ३. उपाश्रय वस्ती मादि की पडिलेहणा करते समय नाक और म ख को बांधने (ढांकने) के लिये [जिसे से कि सचित रज का मख और नाक में प्रवेश न हो सके] मखवस्त्रिका को ग्रहण करना चाहिये । इस गाथा में मख वस्त्रिका के तीन प्रयोजन बतलाये हैं । १. मुख ढांके बिना बोलते समय कोई उड़नेवाला छोटा जीव जन्तु [मक्खी-मच्छर प्रादि] म ख में पड़ जाना संभव है इसलिये उनकी रक्षा के लिये बोलते समय अथवा उबासी आदि लेते समय म खवस्त्रिका को मुंह के आगे रखना । २. शरीर पर उड़कर पड़ी हुई सूक्ष्म धूली को मखवस्त्रिका द्वारा शरीर पर से दूर करना । ३. उपाश्रय प्रादि वसती का प्रमार्जन (साफ़-सूफ़) करते समय म ख और नासिका को मुखवस्त्रिका को त्रिकोण करके उस से ढक लेना और उसके दोनों कोणों (सिरों) को गले के पीछे बांध लेना जिस से मुख और नासिका में सचित धूली आदि का प्रवेश न हो। इसलिये साधुसाध्वी को मुखवस्त्रिका रखनी चाहिये । संक्षेप में कहें तो-१. बोलते समय संपातिम जीवों की रक्षा के लिये २. शरीर आदि की प्रमार्जना के समय तथा----३. उपाश्रय आदि प्रमार्जना के समय पृथ्वी कायादि स्थावर जीवों की रक्षा के लिये साधु-साध्वी के लिये मुखवस्त्रिका का रखना अनिवार्य है । एवं ४. चौथा कारण यह है कि शास्त्रादि का पठन-पाठन करते तथा व्याख्यानादि करते समय सूक्ष्म थूक श्लेष्म आदि मुख से उड़ना संभव है और उसके शास्त्रादि पर गिर जाने से प्राशातना होती है। इस पापअवज्ञा से बचने के लिये भी म ख ढांकना आवश्यक है। इस बात को मैं पहले भी कह चुका हूं। पूर्व पक्ष-पडिलेहण आदि करते समय नाक और मख पर महपत्ती बांधने का जो प्राप ने कहा है, उस से भी तो मुह पर थूक जमा हो जाता है तो फिर चौबीस घंटे बांधने में क्या उत्तरपक्ष-उपाश्रय आदि की भूमि प्रमार्जन करते समय नाक के ऊपर से लेकर म ख ढांकने को कहा है। १. नाक के ऊपर से मुह को ढांकते हुए महपत्ती गले के पीछे गांठ देकर बांधने से न तो नासिका के छेद ही म खपति से स्पर्श करते हैं और नहीं म ख के होठ आदि स्पर्श करते हैं । महपत्ती इन दोनों से अलग रहते हुए ढांकती है। इसलिये नाक से निकलने वाले श्वास तथा मुख से निकलनेवाले वाष्प से थूकादि म ख के प्रागे अथवा नासिका के नीचे जमा होना संभव नहीं है । २. परिमार्जव की क्रिया मौनपने की जाती है उस में बोलना वजित है। इसलिये म ख का वाष्प तथा थूक बाहर निकल कर जमा हो ही नहीं सकता। ३. म खपत्ती से म ख और नाक को ढांकना मात्र उतने ही समय के लिये होता है जितने समय तक प्रमार्जन चालू रहता है । पश्चात् नहीं। उपर्युक्त तीनों कारणों से न तो थूक ही जम पाता है। जब 1. श्वेतांबर जैनश्राविकाएं और श्रावक भी पूजा करते समय नाक-मह को मुखकोष से ढांककर पूजा करते हैं ताकि प्रभु मूर्ति पर पूजा करनेवाले का श्वास तथा सूक्ष्म थूकादि पड़ने का बचाव रहे । अंग पूजा के बाद उसे खोल दिया जाता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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