SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 459
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४२० मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म ४. चौबीस घंटे मुख पर मुहपत्ती बांधे रहने से मुंह से निकलने वाले वाष्प और थक मुंह के सब तरफ़ जमा हो जाने से त्रस जीवों की हिंसा संभव है। प्रागम में थूकादि १४ अशुचि स्थानों से सम्मूच्छिम स जीवों की-यहां तक कि असंज्ञी पंचेन्द्रीय मनुष्यों तक की उत्पत्ति होना माना है । ऐसे जीवों की थूक से उत्पत्ति होकर क्षण-क्षण में मृत्यु होती है। ___ इसलिये मुख बांधे रहने से इन पंचेन्द्रीय आदि त्रस जीवों की उत्पत्ति तथा हिंसा संभव है । प्रतः पागम प्रमाण से भी अहिंसा संभव नहीं है। अतः स्पष्ट है कि मुख के शब्द वाष्प और वायु से वायुकाय आदि जीवों की हिंसा मानकर मह पर मुहपत्ती बांधना न तो आगमानुकूल है और न ही प्रत्यक्ष प्रमाण, इतिहास और तर्क की कसौटी पर कसने से उपयुक्त है। इसके विपरीत मुहपत्ती बांधने से स्थावर जीवों की हिंसा न होकर त्रस जीवों की हिंसा अवश्य संभव है। पूर्व पक्ष-फिर तो मुहपत्ती को हाथ में लेकर मुंह ढांकने का क्या प्रयोजन । मुंह पर बांधने से ही इसका नाम मुंहपत्ती सार्थक है । इससे स्पष्ट है कि मुह बाँधना चाहिये ? नहीं तो हाथपत्ती कहना चाहिये । उत्तर पक्ष-मुहपत्ती का अर्थ है जो वस्तु मुख के लिये काम में आवे। जैसे पगड़ी, टोपी आदि सिर पर रखी जाती है फिर वह चाहे कहीं भी पड़ी हो पगड़ी और टोपी ही कहलायेगी। जूता पग में पहनने के काम आता है फिर वह कहीं पड़ा हो जूता ही कहलायेगा । आप लोग जिस मकान को स्थानक कहते हो और उसे स्थानकमार्गी साधु साध्वियों का निवास स्थान कहते हो, उस मकान में चाहे कोई साधु-साध्वी कभी भी न ठहरा हो स्थानक ही कहलायेगा। इसी प्रकार मुंहपत्ती का सही अर्थ यही है कि जो वस्त्र मुख के लिये काम में प्रावे। फिर वह चाहे हाथ में हो, चाहे कहीं रखा हो । इसलिये इसका अर्थ मुख पर बाँधने का संभव नहीं है । दशवकालिक सूत्र में मुखस्त्रिका के लिये हत्थग (हस्तक) शब्द का प्रयोग भी पाया है इससे भी प्रमाणित होता है कि मुखवस्त्रिका हाथ में रखनी चाहिये और बोलते समय उससे मुख को ढांककर बोलना चाहिये । अतः हाथ में रखने से भी यह मुखवस्त्रिका ही कहलायेगी। वह पाठ यह है "अणन्नवि तु मेहावी, परिछिन्नम्मि संबुडे । हत्थगं संपमज्जित्ता, तत्थ भुजिज्ज संजये । (५।८३) 1. इन के उत्पत्ति स्थान १४ हैं जो कि इस प्रकार है (१) उच्चारेसु [विष्टा में] (२) पासवणेसु [मूत्र में (३) खेलेसु थूक-कफ में] (४) सिंघाणेसु नाक के मैल में (५) पित्तेसु [पित्त में] (६) वन्तेसु [वमन में] (७) पूएसु [पीप, राध, और दुर्गन्धयुक्त बिगड़े घाव से निकले हुए खून में] (८) सोणिएसु [खून में] (8) सुक्केसु [शुक्र-वीर्य में] (१०) सुक्कपुग्गल परिसाडेसु [वीर्य के त्यागे हुए पुद्गलों में] (११) विगय जीव कलेवरेसु [जीव रहित मुर्दा शरीर में] (१२) थी-पुरिस सज्जोएसु [स्त्री-पुरुष के समागम में] (१३) णगर निद्धमणेसु [नगर की मोरी में] तथा (१४) सव्वेसु असुइ-ठाणेसु [सब अशुचि के स्थानों में] । उपयुक्त १४ अशुचि स्थानों में प्रसंज्ञी पंचेन्द्रीय मनुष्य उत्पन्न होते हैं । 2. विज्ञान ने सूक्ष्मदर्शक यंत्र से भी थूकादि में संमूछिम वस जीवों की उत्पत्ति और विनाश अल्प समय में होना प्रत्यक्ष कर दिखलाया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy