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________________ यति और श्रीपूज्य ३४६ (२) उत्तरांध लौंकागच्छीय यतियों और प्रार्यानों ने भी यहां अनेक ग्रंथों की प्रतिलिपियां की हैं । वि० सं० १८७१ में इसी गच्छ के श्रीपूज्य विमलचन्द्र ऋषि ने अपने गच्छ के यति देविया ऋषि को यहाँ की लौंकागच्छ की गद्दी सौंपी थी। वि० सं० १८८० में इसी गच्छ के श्रीपूज्य रामचन्द्र ऋषि ने यहां की लौंकागच्छ की गद्दी प्रारजका सुखमनी को सौंपी थी। अतः यहां पर उत्तरार्ध लौकागच्छ का भी उपाश्रय और गद्दी थी। (३) तपागच्छीय श्रीपूज्य विजयप्रभ सूरि ने वि० सं० १७२३ को देशपट्टक नगर से अपने यति तेजसागर को सामाना और लाहौर की गद्दियों पर भेजा था । (४) बड़गच्छ के यतियों का उपाश्रय और गद्दी भी थी। विक्रम की १६वीं और १७वीं शताब्दी में इस गच्छ के श्रीपूज्य भावदेव सूरि ने यहाँ पर मुसलमान बादशाह द्वारा मस्जिद के पास श्वेतांबर जैन मंदिर का निर्माण करवाया था और उसमें चौदहवें तीर्थंकर श्री अनन्तनाथ जी की प्रतिमा मूल नायक के रूप में प्रतिष्ठित की थी। तत्पश्चात् इनके पट्टधर शिष्य श्रीपूज्य शीलदेव सूरि ने सम्राट अकबर की अनुमति से इस मंदिर का जीर्णोद्धार कराया था और कई जिनप्रतिमानों को प्रतिष्ठा करके इस मंदिर में विराजमान किया था। इन्हीं के गुरु भाई कवि माल देव ने सामाना में अनेक हिन्दी व राजस्थानी काव्यों की रचनाएं की थी। ७. फरीदकोट में यतियों की गद्दी तथा श्वेतांबर जैनमंदिर यहां पर खरतरगच्छ के यतियों का उपाश्रय तथा गद्दी थी। इन्हीं के द्वारा स्थापित इन के उपाश्रय में एक श्वेतांबर जैन मंदिर भी था। इसमें बाइसवें तीर्थंकर श्री अरिष्टनेमि मूलनायक थे । इस समय यह उपाश्रय यहाँ के स्थानकवासी समाज के प्रधिकार में है इन लोगों ने इस मदिर में विराजमान मूर्तियों को उत्थापन करके न जाने उनका क्या किया है। और इस मंदिर तथा उपाश्रय को स्थानक के रूप में बदल लिया है। शास्त्र भंडार भी था वह भी अब वहां नहीं है। विक्रम की १६वीं शताब्दी में यहां खरतरगच्छ के यति विद्यमान थे। इन की गद्दी भी न थी। इस समय इन यतियों ने अनेक ग्रंथों की प्रतिलिपियाँ भी की हैं उन्हों ने अपनी ग्रंथ पष्पिकानों में अपना परिचय इस प्रकार दिया है : (१) खरतरगच्छे श्री कीर्ति रत्न सूरि शाखायाँ महामहोपाध्याय श्री सखलाभ गणि संतानीय श्री ज्ञानप्रमोद गणि, पं० दानभक्त गणि, शिष्य खुशालहेम शि० मुनि पं० चैनसख लिपि कृतं । फ़रीदकोट मध्ये । (२) श्री कल्पसूत्र लिपिकार की प्रशस्ति खरतरगच्छे श्रीकीतिरत्न शाखायाँ महोपाध्याय श्री १०५ श्री सुखलाभजी गणि तत् शिष्य वाचनाचार्य श्री १०५ श्री विजमूर्ति जी गणि, तत् शिष्य मुख्यवाचक श्री ज्ञानप्रमोद जी गणि, तत् शिष्य दान भक्तिमुनि तत् शिष्य पं० सुमतिलाभ मुनि, तत् शिष्य देवचन्दमुनि, तत शिष्य चिरं भवानीदास पठनार्थं सुखं भूयात् श्री कल्याणमस्तु डेलुआ गाँव मध्ये चतुर्मासी कृता। तिहांलिपि चक्रे : श्रीरस्तु-१ (३) इस गद्दी का संबन्ध भटनेर (हनुमानगढ़) की खरतरगच्छीय गद्दी के साथ था। देवचन्द यति, गुलाबचन्द यति, खुशालहेम यति आदि द्वारा लिखी हुई अनेक पांडुलिपियाँ ऐसी प्राप्त हैं जो इन्हों ने फ़रीदकोट में लिखी थीं। 1. देखे इसी ग्रंथ में चमत्कारी भावदेव सूरि के परिचय तथा सामाना नगर के विवरण में । 2. देखें इसी ग्रंथ में सामाना नगर के विवरण में। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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