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________________ ३३८ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म में सचित बस्तु चढ़ाने का निषेध था और उस के भूणा जी आदि ४४ अनुयायियों ने यति (पूजगोरजी) की दीक्षाएं ग्रहण कर स्थान-स्थान पर अपनी गद्दियाँ स्थापित की । अतः वे जिनमंदिरप्रतिमा तथा उनकी पूजा उपासना तो करते थे परन्तु मुहपत्ति को मुख पर नहीं बांधते थे। हम लिख पाये हैं कि वि० सं० १५६० में लुकामत के यति सर्वप्रथम पंजाब में लाहौर माये । वि० सं० १७०६ में अहमदाबाद में लवजी द्वारा ढूंढक मत की स्थापना, ढूंढिये साधुनों की दीक्षा तथा मुहपत्ति बांधने के पश्चात्, पंजाब से लाहौरी उत्तरार्ध लौकागच्छ के यति हरिदास वि० सं० १७२६-३० में अहमदाबाद गये । वहाँ जाकर लवजी के शिष्य सोमजी ऋषि के पास रहे और उन से ढूंढियामत के साधु की दीक्षा ग्रहण की तथा मुख पर मुंहपत्ति बांधी। वि० सं० १७३१ में पंजाब वापिस लौट आए और इस प्रदेश में ढूंढकमत' का श्रीगणेश किया । और अपनी मान्यता के अनुसार पंजाब में भी जिनमंदिरों, जिनप्रतिमाओं तथा इनकी पूजा उपासना के उत्थापन का प्रान्दोलन शुरू कर दिया। पंजाब का स्थानकवासी (ढूंढिया) संघ ऋषि हरिदास को ही आध संघशास्ता प्राचार्य मानता है। गुजरात में जिस सोम जी से ऋषि हरिदास ने ढूंढकमत की दीक्षा ली थी; उस सोम जी के पहले शिष्य कानजी ऋषि थे। इन से गुजरात में ढूंढियामत चालू रहा। ऋषि हरिदास जी भी लाहौरी उत्तरार्ध लौंकागच्छीय कहलायें । लौकागच्छीय मत की शाखा लाहौरी उत्तरार्धगच्छ की वंशावली इस प्रकार है १-यति बजरंग जी, २-ऋषि लवजी, ३-सोम जी, ४---ऋषि हरिदास जी (पंजाब के आदि संघ-शास्ता), ५-वृन्दावन जी, ६-भवानीदास जी, ७-मलूकचन्द जी, ८-मनसा राम जी, ६-भोजराज जी, १०- महासिंघ जी ११----खुशालचन्द जी, १२-छजमल जी, १३-रामलाल जी, १४-अमरसिंह जी, १५-रामबक्ष जी, १६-मोतीराम जी, १७-सोहनलाल जी, १८-काशीराम जी, १६-प्रात्माराम जी, २०-प्रानन्द ऋषि जी। ___ लाहौरी उत्तरार्ध लौकागच्छ के यतियों की वंशावली उपयुक्त ढूंढक (स्थानकवासी) मत की वंशावली से एकदम अलग-थलग ही चलती रही और आगे चलकर इन यतियों की अनेक शाखायें हो गईं। उनमें से यहाँ एक मात्र वि० सं० १८८७ में लिखी गई गुरवावली (वंशावली) का देते हैं 1. देखें गुजराती स्थानकवासी (ढढिया) साधु मणिलालकृत प्रभुवीर वंशावली पृ० २०४। 2. इस मत के संस्थापक लवजी ने बड़े गर्व के साथ अपने मत का नाम ढूढक रखा यही मत प्राज स्थानकवासी कहलाता है। 3. देखें हिन्दी मासिक प्रात्मरश्मि सन् ई० १९७७ मार्च का अंक तथा मुनि मणिलाल ढूंढिया साधु कृत प्रभु महावीर वंशावली । 4. ऋषि मलूकचन्द सद्धर्म संरक्षक श्री बूटेराय (बुद्धि विजय) जी के ढूंढक अवस्था के गुरु थे। 5. यह प्रात्माराम जी श्रीमद् विजयानन्द सूरि (प्रात्माराम) जी से ७५ वर्ष बाद में हुए हैं। ये अधिकतर लुधियाना (पंजाब) में ही रहे हैं । इनको अखिल भारतवर्ष के स्थानकवासी संघ ने सारे भारत के ढूं ढकमत का प्राचार्य स्थापित किया था। इनके देहांत के बाद इनके पट्टधर प्राचार्य प्रानन्दऋषि विद्यमान हैं । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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