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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म "संवत् पनरह सय इगतीस, पोरवाड़ भूणा मनि ईस । सिरोही देसज उत्तम ठाम, अरहटवाड़ा वासी मुनि राउ।। अहमदाबाद नगरमंझार, संयबुद्ध' भूणा सुविचार" ॥१२-१३।। ___ इससे स्पष्ट है कि भूणा जी ने स्वयंबुद्ध अर्थात्- किसी को गुरुधारण किये बिना ही दीक्षा लेकर लुकामत में वि० सं० १५३१ में यति संघ की स्थापना की थी। भूणा जी के स्वयमेव दीक्षा लेने के दो कारण थे-(१) इस मत का प्रवर्तक लौकाशाह गृहस्थ था और (२) इस भूणा से पहले इस मत का कोई साधु अथवा यति नहीं था जिस से कि वह दीक्षा लेता। यही कारण था कि भूणा जी को स्वमेव दीक्षा लेनी पड़ी। इस के बाद इस पट्टावली की छः पीढ़ियों तक, गुजरात तक ही सीमित रहना पड़ा। इन छह पीढ़ियों के नाम वीर पट्टावली में इस प्रकार दिये हैं-- १. भूणा (भाण) जी, २. भीदा जी, ३. नूनाजी, ४. भीमाजी. ५. जगमाल तथा ६. सरवा (सरवर) जी। सरवर जी की यति दीक्षा वि० सं० १५५४ में हुई थी। इस के दो शिष्य थे-७. यति रायमल्लीजी और यति भल्लो जी। ये दोनों वि० सं० १५६० के लगभग उत्तरार्ध भारत के लाहौर नगर में पाये और यहाँ आकर इन्होंने अपनी यति गद्दी स्थापित की। और इन का गच्छ लाहौरी उत्तराध लौंका गच्छ के नाम से प्रसिद्ध हुआ । इस बात की पुष्टि गुरवावली वि० सं० १८८७ से तथा प्रकारांतर से स्थानकवासी गुजराती मुनि मणिलाल की प्रभु महावीर की वंशावली से होती है। ___ तब तक लौंकामत के यति मुहपत्ति नहीं बाँधते थे । मात्र जिनप्रतिमा की पूजा में सचित वस्तुओं का चढ़ाने का निषेध करते थे। इन का यह कहना था कि प्रभु पूजा में पुष्पफलादि सचित वस्तुओं का उपयोग करना हिंसा का कारण है । इसके लिये एक ऐसा मत भी है 1. गुरवावली लिषति असति संवत् १८८७ मघसर सूद अष्टमीवार सोम सुधासर (अमृतसर) नगरे (श्रीवल्लभ स्मारक जैन शास्त्र भंडार दिल्ली) यद्यपि इस मत के अनुयायीयों ने अपने मत को प्राचीनतम सिद्ध करने के लिये अनेक कल्पनाएं कर रखी हैं किन्तु इनके साहित्य से यह बात निर्विवाद सिद्ध हो जाती है कि भूणा जी ही लुकामत का पहला पुरुष था जिस ने इस मत की यति (गोरजी) की. स्वयमेव दीक्षा लेकर इस मत को चालू किया। यह सिरोही राज्य में प्रर हटवाड़ा निवासी पोरवाड़ जाति का था । (स्थानकवासी मणिलाल कृत वीर प्रभु वंशावली पृ० १७६) । 2. इस बात की पुष्टि प्रभु महावीर वंशावली मुनि मणिलाल कृत से इस प्रकार होती है(१) सरवाजी के बाद लौंकागच्छ की तीन शाखायें हो गईं । १. गुजराती लौंकागच्छ, २. नागौरी लौंकागच्छ और ३. लाहौरी उत्तरार्ध लौंकागच्छ । (२) श्री रूपा जी ने स्वयमेव दीक्षा ली और सरवाजी के पट्टधर बने (पृष्ठ १८६) । इस से यह भी स्पष्ट है कि जब सरवाजी के दोनों शिष्य रायमल्ल और भल्लो लाहौर में चले पाये तव सरवाजी का कोई अन्य शिष्य नहीं था जो उन की गुजरात की गद्दी को संभालता। अतः सरवाजी की मृत्यु के बाद रूपाजी ने स्वयमेव यति दीक्षा लेकर अपने आप को सरवाजी का पट्टधर घोषित करके उनकी गद्दी का मालिक बना । और रूपा जी से गुजरात में सरवाजी की गद्दी की आगे परम्परा कायम रही। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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