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________________ मुगल साम्राटों पर जैनधर्म का प्रभाव अर्थात् - "सारांश यह है कि5- अकबर का बौद्धों के साथ किसी दिन भी सम्पर्क नहीं हुआ था इसलिये उनका अकबर पर कोई भी प्रभाव नहीं था। न तो फ़तेहपुर सीकरी की धर्मचर्चानों में किसी दिन बौद्धमत वालों ने भाग ही लिया था और न ही अबुल फ़ज़ल की किसी दिन विद्वान् बौद्ध साधुनों से मुलाकात ही हुई थी । अतएव बौद्धधर्म के सम्बन्ध में उसका ज्ञान नहींवत था । धार्मिक परामर्श सभा भाग लेने वाले जो दो चार पुरुषों का बोद्ध होने का भ्रमात्मक श्रनुमान लोगों ने किया है, वह वास्तव में गुजरात से आने वाले जैन ही थे ।" इस प्रकार अकबर के साथ जैन साधुओं का अव्यवहित प्रविच्छिन्न संबंध वि० सं० १६३९ से वि० सं० १६५९ तक रहा। इसके पश्चात् भी अकबर जीना रहा तब तक बल्कि उसकी मृत्यु के बाद भी उसके पुत्र जहांगीर तथा पौत्र शाहजहां से भी जैनसाधुयों का सम्पर्क बना रहा । यह बात भी भूलनी नहीं चाहिये कि अकबर के दादा बाबर तथा पिता हुमायूं से भी श्वेतांबर जैन साधुओं तथा यतियों के साथ संपर्क रहा था । यह हम पहले भी लिख आये हैं । ३०३ श्राचार्य श्री होरविजय सूरि के तप त्याग-ज्ञान तथा चारित्र की कितनी महानता थी, इसका निर्देश अबुल फ़ज़ल ने माइने अकबरी में स्पष्ट कर दिया है । इसने प्रापकी गिनती पाँच श्रेणियों में से प्रथम श्रेणी के विद्वानों में की है । यही कारण है कि सम्राट अकबर पर जितना प्रभाव आपका पड़ा था, उतना प्रभाव अन्य किसी भी विद्वान का नहीं पड़ा था। आपके शिष्यों प्राचार्य विजयसेन सूरि तथा उपाध्याय भानुचन्द्रजी वा पाँचवीं श्रेणी के विद्वानों में उल्लेख किया है । किन्तु इन पांचों श्रेणियों में खरतरगच्छीय जंगमयुगप्रधान श्री जिनचन्द्र सूरि अथवा अन्य किसी भी जैनमुनि या विद्वान का उल्लेख किया गया नहीं मिलता। इससे भी यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि जगद्गुरु श्री हीरविजय सूरि के तथा उनके शिष्यों-प्रशिष्यों के प्रभाव से ही अकबर हिंसक और समन्वय दृष्टि बना था । जिससे म्लेच्छों के अत्याचारों त्रस्त भारतवासी उत्पीड़ित होने से निजात पाये । इसलिये भारतीय जनता युग-युगान्तरों तक इन महापुरुष के उपकार को कैसे भुला सकती है ? भानुचन्द्रोपाध्याय का सामान्य जनसमूह के लिए भी अकबरपर अच्छा प्रभाव था । यह बात दो प्रसंगों से स्पष्ट हो जाती है- १. एक बार गुजरात के सूबा अज़ीज़खां कोका ने जामनगर के राजा सत्रसाल को युद्ध में हराकर उसे तथा उसके साथी युद्ध करने वालों को बन्दी बना कर कारावास में डाल दिया था। जब भानुचन्द्र को इस बात का पता लगा तो उन्होंने अकबर को कहकर राजा सत्रसाल के समेत सब युद्धबन्दियों को छुड़ा दिया था । २. दूसरी बात यह है कि आप के कहने से गुजरात से जज़िया आदि कर हटा दिये थे । कतिपय दिगम्बर लेखकों का यह कहना है कि दिगम्बर पंडित बनारसीदास जिसने इस मत में तेरहपथ (बनारसी मत) की स्थापना की थी उनका प्रभाव भी अकबर पर था । परन्तु यह धारणा भी ठीक नहीं है । क्योंकि बनारसीदास वि० सं० १६५४ तक इश्कबाजी के कारण कुष्ट रोग से ग्रसित रहा और १६६४ विक्रम संवत् तक इश्कबाज़ रहा । " इसके बाद इश्कबाज़ी छोड़ 1. देखें धन्यकुमार दिगम्बरी का 'अकबर पर जैनधर्म का प्रभाव नामक लेख - विजयानन्द हिन्दी मासिक पत्रिका में 2. देखें बनारसीदास द्वारा लिखित अपना अर्द्धजीवन चरित्र वि० सं० १६६८ तक कां Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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