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________________ २६४ एशिया और पंजाब में जनधर्म का पितामह राजा चन्द्रगुप्त मौर्य ग्रीक ऐतिहासिकों का सैण्ड्राकोट्टस इन की सेवा करता था । ' (e) श्रवणबेलगोला की स्थानीय अनुश्रुति (tradition) भद्रबाहु और चन्द्रगुप्त का सम्बन्ध जोड़ती है | श्रवणबेलगोला के दो पर्वतों में से छोटे का नाम 'चन्द्रगिरि' है । कहा जाता है कि यह नाम चंद्रगुप्त नामी एक महात्मा के नाम पर है। इसी पर्वत पर एक गुफ़ा भी है, इस नाम भद्रबाहुस्वामी की गुफ़ा है। यहाँ एक मठ भी हैं, जिसे चंद्रगुप्तवस्ती कहते हैं । (१०) इस चंद्रगिरि पर्वत पर अनेक शिलालेख उपलब्ध हुए हैं । ये लेख भी दिगम्बर जैन साहित्य को पुष्ट करते हैं। इन से प्रतीत होता है कि श्राचार्य भद्रबाहु ने इस स्थान पर अपने प्राणों का त्याग किया था और अन्तिम समय में उन का शिष्य चन्द्रगुप्त उन की सेवा करता था । इन शिलालेखों में से मुख्य शिलालेख में द्वादश वर्ष के दुर्भिक्ष तथा उसके बाद उज्जयन से "मुनियों के संघ का दक्षिण में प्राना सब लिखा है । 3 (११) ये शिलालेख विविध समयों के हैं, सब से प्राचीन शिलालेख सातवीं सदी ईसा के पश्चात् का है । अत: प्राचीनता के कारण इन की प्रमाणिकता में भी सन्देह नहीं किया जा सकता । (१२) ये उपर्युक्त प्रमाण हैं जिन्हें आधार में लेकर मौर्य चन्द्रगुप्त का सम्बन्ध श्रवणबेलगोला के साथ जोड़ा जाता है। इन्हीं का अच्छे प्रकार से विवेचन करके ऐतिहासिक स्मिथ भी सम्राटचन्द्रगुप्त के अनशन द्वारा प्राणत्याग की कथा सत्य मानते हैं परन्तु हमारी सम्मति में यदि इन ग्रंथों तथा शिलालेखों का अच्छी प्रकार से अनुशीलन किया जावे तो हम किसी अन्य ही परिणाम पर पहुंच जायेंगे । 1. The settlement of the Jains at that place was brought about by the last of Srut-Kevalin Bhadrabahu, and that this person died there, tended in his last movement by the Maurya King Chandragupta, the Sandrakattas of the Greek Historian-the grandfather of Ashoka. (Myror and Coorg from Inscription by Lewis Rice). 2. यो भद्रबाहुः श्रुतकेवलीनां मुनीश्वराणामिह पश्चिमोऽपि । पश्चिमोऽभूत् विदुषां विनेता, सर्वश्रुतार्थं प्रतिपादनेन ॥ यदीय शिष्योऽजनि चन्द्रगुप्तस्समग्र शीलानतदेववृद्धः । विवेशयत्तीव्रतपः प्रभावात् प्रभूतकीर्तिभुं नान्तराणि ॥ इत्यादि 3. प्रथ खलुसकलजगदुदयकरणो दिनातिशयगुणास्पदी भूतपरम जिनशासन सरस्समीभवार्द्ध तभव्यजनकमलविरसनवितिमिरगुणकिरणसहस्रमोहति महावीरसवितरि परिनिवृत्ते भगवत्परमर्षि गौतम गणधर साक्षाच्छिष्यलोहार्यं जम्बुविष्णुदेव अपराजितगोवर्द्धन भद्रबाहु विशाखपोष्ठिलक्षत्रिकार्यं जयनागसिद्धार्थ घृतषेणाबुद्धिलादि गुरुपरम्परीणक्रमाभ्यागत महापुरुषसंतति समनद्योतितान्वय भद्रबाहुस्वामिना उज्जयिन्याम् भ्रष्टांगमहानिमित्त तत्ववित्तत्रैकालदर्शिता निमित्तेन द्वादशसंवत्सरकाल वैषम्यमुपलभ्य कथिते सर्वसंघ उत्तरापबात् दक्षिणापथं प्रस्थितः प्रार्षेमौव जनपदं अनेक ग्रामशतसंख्य मुदितजनधन कनकंशस्यगोमहिषाजाविकलसमाकीर्णं प्राप्तवान् । श्रतः प्राचार्य प्रभाचन्द्र ेण श्रवनितलललामभूतेऽथास्मिन् कटवत्रनामोपलक्षिते शिखिरिणी जीवितंशेषम् श्रल्पतरकालं श्रवबुध्याध्वनः । सुचकित: तपासमाधिन् माराधितुम् प्रापृच्छ्य निखशेषेण संघं विसृज्य शिष्येणैकेन् पृथुलकास्तीर्णतलासुशिलाषु मीतलासु स्वदेहं सत्यस्य माराधितवान्क्रमेण सप्तशतम् ऋषीणाम् प्राराधितम् इति जयतु जिनशासनम् । (इन सब शिलालेखों के लिये देखिये - Rice - Mysore and Coorg from Inscription. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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