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________________ २९६ हस्तिनापुर में जैनधर्म अकम्पनाचार्य के मुनिसंघ से राजा बलि को द्वेष हो गया । एकदा यहाँ इन सात सौ मुनियों का संध पधारा । तो बलि ने वैर प्रतिशोध का अवसर पाकर राज्याधिकार के बल से नरमेध यज्ञ द्वारा इन सब मुनियों को भस्म कर डालने का आयोजन किया। ऋद्धिधारी मुनि विष्णुकुमार को जब इस बात का पता चला तो उन्होंने वामनरूप धारा और युक्ति से बलि को वचनबद्ध करलिया। मुनिसंघ का उपसर्ग दूर हुआ और धर्म की रक्षा हुई। तभी से रक्षाबन्धन पर्व शुरू हुआ। भविष्यदत्त नामक एक विख्यात व्यापारी के हस्तिनापुर में होने का उल्लेख पाया जाता हैं । वणिक होते हुए भी वह एक परमवीर और धार्मिक था। उसने बड़ी वीरता के साथ शत्रुओं के आक्रमणों का निवारणकर अपने नगर, देश तथा राजा की रक्षा की । सेनापति जयकुमार--- चक्रवर्ती भरत के प्रमुख सेनापति जयकुमार हस्तिनापुर में रहते थे। काशी नरेश अकम्पन की पुत्री सुलोचना ने स्वयंवर में उनके गले में वरमाला डाली । पर भरत चक्रवर्ती के पुत्र अर्ककीति से यह सहन न हुआ। उसने सेनापति से युद्ध किया और विजय पाकर उसे बन्दी बना लिया। उसे क्षमा करके सफलतापूर्वक विवाह किया । - जैनमंदिर और संस्थाएं हम लिख आये हैं कि हस्तिनापुर में श्री ऋषमदेव के समय से लेकर सदा यहाँ जनमंदिरों, जैन स्तूपों आदि का निर्माण होता रहा । तथा अनेक अाक्रमणकारी इनको हानि पहुंचाते तथा ध्वंस करते रहे । विक्रम की १४वीं शताब्दी में जिनप्रभ सूरि के समय यहाँ पाँच मंदिर और पांच स्तूप विद्यमान थे। श्री ऋषभदेव, श्री शांतिनाथ, श्री कुथुनाथ, श्री अरनाथ, श्री मल्लिनाथ इन पाँच तीर्थंकरों की स्मृति में निर्मित पांच स्तूपों में से प्राज मात्र एक स्तूप ही विद्यमान है और वह यहाँ विद्यमान जैन मंदिरों से पूर्व उत्तर की ओर लगभग दो किलोमीटर की दूरी पर है। इसका वर्णन हम इसी प्रकरण में प्रागे करेंगे। इसके सिवाय वर्तमान में न तो कोई प्राचीन जैनमंदिर है और न ही कोई स्तूप है तथा न इनके अवशेष ही पाये जाते हैं। इन प्राचीन मंदिरों, मूर्तियों, स्तूपों का क्या हुआ, कब और किस ने इन्हें उजाड़ा? इस की आज तक कोई ऐतिहासिक खोज नहीं की गई । पर विक्रम की १७ वी, १८ वीं शताब्दी के यात्रा विवरणों से स्पष्ट है कि इस काल तक ये जैनस्तूप तथा जैन मंदिर विद्यमान थे। वर्तमान में जो यहाँ जैन मंदिर-संस्थाए आदि हैं उनका परिचय देते हैं । जैन मंदिर प्रादि(१) श्वेतांबर जैनमंदिर मूलनायक श्री शांतिनाथ भगवान् वह मंदिर समतल भूमि पर श्वेतांबर जैन धर्मशालाओं से घिरा हुआ है। इस मंदिर का निर्माण बाबू गुलाबचन्द जी पारसान के पुत्र बाबू प्रतापचन्द जी पारसान कलकत्तावालों ने अपने निजी द्रव्य से करवा कर इस प्राचीन तीर्थ का पुनरुद्धार किया। जिस की प्रतिष्ठा वि० सं० १६२६ वैसाख सुदि ३ (आखातीज) के दिन श्री जिनकल्याण सूरि द्वारा हुई। इसी मंदिर का पुनः भव्य विशाल रूप में देवविमान समान नवनिर्माण (जीर्णोद्धार) पंजाबकेसरी, कलिकालकल्पतरु, अज्ञान-तिमिर-तरणी, शासन प्रभावक, युगवीर प्राचार्य श्री मद्विजयवल्लभ सूरि जी की प्रेरणा से श्री हस्तिनापुर जैन श्वेताम्बर तीर्थ समिति ने सेठ प्रानन्द जी कल्याणजी की पेढ़ी की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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