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________________ मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म (२४) अन्य भी अनेक मुमुक्षुत्रों ने प्रभु से दीक्षा ग्रहण कर श्रमणधर्म स्वीकार किया। तथा अनेक महिलाओं ने भी यहाँ दीक्षाएँ ग्रहण की। इस तीर्थाधिराज में अनेक तीर्थकर, सामान्यकेवली, लब्धिधारी, ऋद्धिधारी श्रमण तथा श्रमणियाँ पधारे । अनगिनत मुमुक्षुत्रों ने इस धरती पर आत्मकल्याण किया। श्री ऋषभदेव से लेकर भाजतक इस तीर्थ की यात्रा करने के लिए यात्रीसंघ आते रहे। अनेक श्रावकों ने समय समय पर जैन मंदिरों, स्तूपों तथा पादपीठों के निर्माण तथा स्थापनाएं कीं। किसी समय जनों की यहाँ घनी बस्ती थी, धनाढ्य, समृद्धिशाली श्रेष्ठियों का यह निवासस्थान था। पेथड़शाह, वस्तुपाल-तेजपाल अपने-अपने धर्मगुरु जैनाचार्यों के साथ संघ लेकर यहाँ यात्रा करने आये थे। इन लोगों ने बड़े-बड़े विशाल जिनमन्दिरों का निर्माण कराया। परन्तु आततायी ध्वंसकों ने इस तीर्थ को अनेक बार ध्वंस किया। जिनमन्दिरों-जिनप्रतिमाओं को क्षति पहुंचाई, साथसाथ नये मंदिरों का निर्माण भी होता रहा । जिनप्रतिमाओं की प्रतिष्ठाएं भी पुनः पुनः होती रहीं । आज तो यह सारा नगर जंगल के रूप में परिवर्तित हो गया है। मात्र दो तीन जनमंदिरों के सिवाय इन मंदिरों के आसपास कोई आबादी नहीं रही। विक्रम की १४ वीं शताब्दी में जैनाचार्य श्री जिनप्रभ सूरि ने चतुर्विध संघ के साथ इस तीर्थ की यात्रा की। उस समय उन्होंने लिखा है कि श्री युगादिप्रभोराद्या चोक्षरिक्षुरसैरिह । श्रेयाँसस्य गृहे पंचदिव्याढ्याऽजनि पारणा ॥४॥ जिनास्त्रयोऽत्राजायन्त शांति-कुन्थुररस्तथा । अत्रैव सार्वभौद्धि बभुजुस्ते महीभुजः ॥५।। मल्लिश्च समावासापतिन चैत्यचतुष्टयी। अत्र निर्मापिता श्राद्वैर्वीक्ष्यते महिमाद्भुता ॥६॥ भास्तेऽत्र जगन्नेत्रपवित्रीकार कारणम् । भवनं चाऽम्बिकादेव्या यात्रिकोपप्लवच्छिदः ॥७॥ जाह्नवी क्षालयत्येतच्चैत्यभित्ती: स्ववीचिभिः । कल्लोलोच्छालितभू यो भक्त्या स्नात्र चिकीरिव ।।८।। अर्थात् -श्री हस्तिनापुर में प्रथम तीर्थ कर श्री ऋषभदेव ने श्रेयांसकुमार के घर में इक्षुरस से पारणा किया और वहां देवों ने पांच दिव्य प्रगट किये । श्री शांतिनाथ, श्री कुथुनाथ श्री अरनाथ यहाँ पर चक्रवर्ती तीर्थकर हुए एवं श्री मल्लिनाथ समवसरे । इन चारों के अलग-अलग चार जिन मंदिर तथा (श्री नेमिनाथ भगवान की शासनदेवी) अम्बिकादेवी का भी मन्दिर है। इन मन्दिरों की दीवालों का प्रक्षालन गंगा नदी करती है यानी ये पांचों मंदिर गंगा नदी के किनारे पर प्रवस्थित हैं । इनके प्रतिरिक्त यहां पर स्तूपों का भी वर्णन हैं। जो आजकल निशियाँ जी के नाम से प्रसिद्ध हैं। निशियाँ जी का अर्थ है तीर्थ करों आदि की तपस्थली, केवलज्ञान भूमि । ज्ञात होता है कि श्री ऋषभदेव जी के तप का पारणा स्थल तथा शाँतिनाथ, कुंथुनाथ, अरनाथ ने केवलज्ञान से पहले यहाँ तप किया था एवं श्री शिव राजर्षि अथवा अन्य किसी मुनिराज ने यहाँ तप करके केवल ज्ञान प्राप्त किया होगा अथवा किसी अन्य तीर्थ कर के समवसरण की स्मृति में इसका निर्माण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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