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________________ हस्तिनापुर में जैनधर्म २१३ था। शेष ने अपने पुत्र शंख को राज्य देकर स्वयं जैनश्रमण की दीक्षा ग्रहण की और निराति चार चरित्र पालते हुए केवलज्ञान प्राप्त किया। सामान्यकेवली होकर सर्वत्र जैनधर्म का प्रचार और प्रसार किया। (१४) कुछ वर्षों के बाद श्री शेष केवली पुनः हस्तिनापुर पधारे तब राजा शंख ने अपने दो भाइयों, अपनी यशोमती रानी तथा राजमंत्रियों को साथ लेकर इनके पास भागवती दीक्षाएं ग्रहण की। जीवनपर्यन्त अनेक क्षेत्रों में विहार करते हुए इन सबने जैनधर्म का प्रसार किया। (१५) श्रीकृष्ण भगवान नेमिनाथ के चाचा वासुदेव के पुत्र (भाई) थे और समकालीन थे। कौरवों पांडवों की राजधानी भी हस्तिनापुर थी। कौरव पांडव भगवान नेमिनाथ श्री तथा कृष्ण के समकालीन थे । उनके राज्यकाल में राजर्षि दमवत्त भी यहीं हुए हैं । एकदा यहाँ नगर के बाहर यह राजर्षि ध्यानारूढ़ खड़े थे । उधर से जाते हुए कौरवों के टोले ने राजर्षि को ध्यानारूढ़ देखा और उनकी भरपेट निन्दा भर्त्सना की। इतने तक ही उन्हें संतोष न हुमा। उन पर जो कुछ हाथ लगा पत्थरों, ढेलों, फलों की बौछार शुरू कर दी । यहाँ तक कि राजर्षि पत्थरों से पूरे ढक गए और ऐसा मालूम होने लगा कि यहाँ पत्यगे के ढेर के सिवाय और कुछ भी नहीं है । किन्तु पत्थरों आदि के प्रहारों से न तो मुनि विचलित हुए न ही ध्यान भंग हुए। वे ध्यानारूढ़ ही बने रहे। वे इतने तल्लीन थे कि उन्हें अपने शरीर की सुधबुध भी नहीं थी, आत्मचिन्तन के सिवाय उन्हें बाहरी शरीर के साथ क्या बीत रही है कुछ भी पता नहीं था। पर फिर भी कौरवों का क्रोध शांत न हुआ और क्रोध की भट्टी में जलते हुए आगे बढ़ गए। कौरवों के चले जाने के थोड़े समय बाद ही पांडव अपनी सेना के साथ उधर पा निकले। उन्होंने वहाँ पशुओं को चरानेवाले ग्वालों से पूछा कि यहाँ राजर्षि ध्यानारूढ़ खड़े थे वे कहां गए और उनके स्थान पर यह पत्थरों का ढेर किसने लगा दिया है ? ग्वालों ने पांडवों से सारी घटना कह सुनाई। यह सुनकर उन्हें बहुत प्राघात लगा। तुरंत सेना सहित उन सबने तुरंत पत्थरों को हटाया और मुनिराज को कष्टमुक्त किया । राजर्षि के तप त्याग तथा सहनशीलता की प्रशंसा तथा उनके गुणों की स्तुति, वन्दना करके कौरवों के अपराध के लिए क्षमा मांगी । क्षमामूर्ति राजर्षि दमदत्त को समभाव पूर्वक शुक्ल ध्यान से केवलदर्शन-केवलज्ञान की प्राप्ति हुई । सामान्यके वली होकर सर्वत्रिक जैनधर्म का प्रसार करते हुए अन्त में सर्वकर्मों को क्षय करके हस्तिनापुर में निर्वाण पाया। (१६) भगवान नेमिनाथ के समय में ही पांडवकाल में कटौचवंश के प्रसिद्ध शूरवीर राजा सुशर्मचन्द्र के करकमलों से पंजाब (वर्तमान में हिमाचल प्रदेश) कांगड़ा में श्री ऋषभदेव और अंबिकादेवी सहित विशाल ५२ जिनालय (जैनमंदिर) का निर्माण कराया जो आजकल कांगड़ा किला के नाम से प्रसिद्ध है और ध्वंस पड़ा है। आजकल इसमें एक मंदिर में मात्र श्री ऋषभदेव की एक प्राचीन प्रतिमा विराजमान है। इसका परिचय हम कांगड़ा के इतिहास में कर आए हैं। (१७) तेइसवें तीर्थंकर श्री पार्श्वनाथ हस्तिनापुर पधारे । समवसरण में अनेक भव्य जीवों को उपदेश देकर जैनधर्मी बनाया । आप सिन्धु-सौवीर, पॅड्रवर्धन (पेशावर), गाँधार देश, काश्मीर आदि भी पधारे और भव्य जीवों का कल्याण किया। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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