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________________ १४४ मध्यएशिया और पंजाब में जैनधर्म हैं, ज्ञात होता है कि ये लोग पोसवाल जाति का ही एक अंश होंगे। इस क्षेत्र में जैन साधुनों के विहार के प्रभाव के कारण ये लोग अपने पुरखाओं के जैनधर्म को भूल गये होंगे और पौराणिक ब्राह्मण पंडितों के प्रभाव में आकर पौराणिक धर्मों के अनुयायी बन गये होंगे। (५) जब चीनी यात्री हुएनसांग काश्मीर में आया था तब उस समय के इस जनपद का वर्णन करते हुए लिखता है कि जनता की किसी विशेष धर्म की ओर प्रास्था नहीं है। इस से भी स्पष्ट है कि उस समय काश्मीर में जैन, बौद्ध और पौराणिक आदि सब धर्मों का विस्तार था और उनकी धर्मोपासना के लिये उनके इष्टदेवों के मंदिर तथा स्मारक आदि भी मौजूद थे। काश्मीर में जैन मंदिरों, जैनतीर्थों की यात्रा करने के लिये भारत के अनेक नगरों से यात्री संघों के आने के उल्लेख भी मिलते हैं । यथा (६) विक्रम संवत् ६७२ में रणथंभोर से ओसवाल जाति के संचेती गोत्रीय शाह चन्द्रभान छरी पलाता पैदल यात्रासंघ लेकर भारत के अनेक जैनतीर्थों की यात्रा करने के लिये निकला। इस का वर्णन पार्श्वनाथ की परम्परा का इतिहास नामक ग्रंथ में प्राचार्य श्री देवगुप्त (ज्ञानसुन्दर) सूरि ने इस प्रकार किया है। "नवसौ ने बाड़ोतरे (६७२) गढ़ चट कोई न पायो गाज। विषमी वाट संचेती वदिया हाप्यो ने फाव्यो हरराज ॥ मारवाड़ मेवाड़ सिन्धधरा सोरठ सारी । काश्मीर कांगरू (कांगड़ा), गवाड़ गिरनार गांधारी॥ अलवर-धरा आगरा छोडयो न [कोई] तीर्थ थान । पूरब-पश्चिम उत्तर दक्षिण पृथ्वी प्रगटयो भान ॥ नरलोक कोई पूज्यो नहीं संचेती थारे सारखो। चन्द्रभान नाम युग-युग अचल पहपलटे धन पारखो ॥ अर्थात् —विक्रम संवत् ६७२ में श्वेतांवर जैन श्रावक श्रोसवाल वंश में संचेती गोत्रीय चन्द्रभान ने रणथंभोर से एक बहुत बड़ा संघ जैनतीर्थो की यात्रा करने लिये निकाला। संघ ने अनेक जैनतीर्थों की यात्रा करते हुए पंजाब में भी सिन्ध, कांगड़ा, काश्मीर, गांधार (तक्षशिला उच्चनगर आदि अनेक जैनतीर्थों की यात्राएं की। (७) काश्मीर में जैनधर्म और संस्कृति का कितना प्रभाव था उसके लिये हम एक और प्रमाण देते हैं । यद्यपि हिन्दू परम्परा में गणपति का स्वरूप हाथी के मुखवाले पुरुष विशेष का है और उसे शिव का पुत्र माना जाता है। किन्तु जैनधर्म में गणपति का अर्थ गण+पति यानी गणों का अध्यक्ष-गणधर किया जाता है। हम लिख आये हैं कि शिव अर्हत् ऋषमदेव का दूसरा नाम है । गणपति शिव का बड़ा पुत्र था, गणधर तीर्थंकर का बड़ा मुख्य शिष्य होता है । तीर्थंकर अथवा साधु उन का शिष्य पुत्र कहा जाता है । जैन श्रमण ब्रह्मचारी होता है अतः उस की इस अवस्था में पत्नी नहीं होती। अर्हत् के शिष्यों को ही उस की संतान कहा जाता है । गणधर तीर्थंकर के मुख्य श्रमण शिष्य होते हैं तथा केवलज्ञानी होने के बाद वे सारे विश्व के स्वरूप को हस्तामलक वत जानते हैं । कवि कल्हण अपनी राजतरंगिणी में लिखता है कि काश्मीर में गणपति का स्वरूप ऐसा ही माना जाता था और इस की पुष्टि ऋग्वेद आदि से भी होती है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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