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________________ १२० मध्य एशिया और पंजाब में जैनधर्म नदी के तटवर्ती प्रसिद्ध नगर था । प्रार्य इन्द्रदिन्न सूरि के पट्टधर शिष्य आर्य दिन्न सूरि का समय लगभग मौर्यकाल से एक शताब्दी बाद का है। वे सम्प्रति के समकालीन आर्य सुप्रतिबद्ध के प्रशिष्य थे। इनके शिष्य प्राचार्य शांतिश्रेणिक से निग्रंथ गच्छ (श्वेतांबर जैन श्रमणों) की उच्चनागरी शाखा निकली। ३- कम्बोज-इसका दूसरा नाम पामीर भी था । यह प्रश्न वाहन से उत्तर की तरफ था। हम लिख पाए हैं कि यहाँ पर भी जैनधर्म का विस्तार था। इस जनपद में विचरणे वाले श्रमण संघ श्वेतांबर जैनों के चौरासी गच्छों में से एक गच्छ कम्बोजा अथवा कम्बोजी के नाम से भी प्रसिद्ध था । गांधारा गच्छ और कम्बोजी गच्छ विक्रम की १७वीं शताब्दी तक विद्यमान थे । क्योंकि जिन पट्टावलियों में इनके नाम पाए हैं उनमें बारह मतों में लुंकामत का भी नाम पाया है। लुकामत विक्रम की १६वीं शताब्दी में स्थापन हुअा और ८४ गच्छों और १२ मतों की पट्टावली जिनमें इन गच्छों और मतों के नामों का उल्लेख है वि० सं० १८३१ में लिखी गई है। अतः विक्रम की १६वीं और १८वीं शताब्दी के मध्य काल में ये दोनों गच्छ विद्यमान थे। इससे स्पष्ट है कि प्रश्नवाहनक कुल, उच्चनागरी शाखा, कम्बोजा एवं गांधारा गच्छ इन चारों का प्रादुर्भाव पंजाब में मौर्यकाल में हुअा जिनको शिष्य परम्परा लगभग दो हजार वर्षों तक पंजाब में सर्वत्र विद्यमान रही । उनका यहाँ प्रावागमन तथा स्थिरता भी रही और सारे पंजाब जनपद में विचरण करके जैनधर्म को समृद्ध बनाते रहे। इन गच्छों के अतिरिक्त पंजाब के अनेक विभागों के नाम से भी अनेक गच्छ विद्यमान थे, जिनकी चर्चा हम आगे करेगे। जब ई० स० १६२३ (वि० सं० १९८०) में अंग्रेज़ सरकार के पुरातत्त्व विभाग ने शाह की ढेरी (तक्षशिला) के खण्डहरों की खुदाई का काम प्रारंभ किया। उस समय सर जान मार्शल ने अपने संस्कृत के विद्वान मित्रों से प्राचीन साहित्य में आये हुए तक्षशिला सम्बन्धी उल्लेखों का संग्रह कराया। उन पर विचार करते हुए वह लिखता है कि- "इन उल्लेखों में जो उल्लेख जैनशास्त्रों से लिये गये हैं वे सब से अधिक ध्यान देने योग्य हैं। इनमें म्लेच्छों और यवनों का जिक्र है; तुरुष्कों द्वारा तक्षशिला के उजाड़े जाने का तथा उनके भय से पाषाण और धातुमयी प्रतिमानों की रक्षा के लिए भूमिगृहों में बन्द करने का जिक्र हैं । ईसा की पाँचवीं शताब्दी में हूणों ने धर्मराजिका स्तूप का विध्वंस किया तो बौद्धों ने भी अपनी मूर्तियाँ पृथ्वी में गाड़ दी थीं। जैन उल्लेखों से यह भी सिद्ध होता है कि तक्षशिला में बहुत से जैन मन्दिर व स्तूप थे जिनमें से कई तो निःसंदेह अति विशाल और सुन्दर होंगे। अब मेरा विश्वास है कि सिरकप के "एफ" और "जी" ब्लॉक के छोटे मन्दिर उन्हीं में से हैं । पहले मैं इन मन्दिरों को बौद्ध मन्दिर समझता था । परन्तु अब एक तो इनकी रचना मथुरा से निकले हुए अायागपट्टों पर उत्कीर्ण जैन मन्दिरों से मिलती है । दूसरे इनमें और तक्षशिला से निकले हुए बौद्ध मन्दिरों में काफी भिन्नता है । इन कारणों से अब मैं इन मन्दिरों को बौद्ध की अपेक्षा जैनमन्दिर ख्याल 1- कल्पसूत्र स्थविरावली व्याख्यान ८ । 2-जन साहित्य संशोधक त्रैमासिक पत्रिका वर्ष ३ अं० १ गच्छ नं० ७३, ७४ पृष्ठ ३३ । 3-जैन साहित्य. संशोधक त्रैमासिक पत्रिका खण्ड ३ अंक १। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003165
Book TitleMadhya Asia aur Punjab me Jain Dharm
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Duggad
PublisherJain Prachin Sahitya Prakashan Mandir Delhi
Publication Year1979
Total Pages658
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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