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________________ तब होता है ध्यान का जन्म 'क्या दिल्ली का राज्य तुम्हारे बाप का है?' संन्यासी ने पूछा तो क्या स्वर्ग का राज्य तुम्हारे बाप का है?' व्यक्ति ने पूछा संन्यासी यह सुनकर स्तब्ध रह गया। ध्यान के नाम पर यह प्रलोभन चल रहा है, व्यवसाय चल रहा है। वास्तव में ध्यान का अवतरण तब होगा जब हमारे भीतर यह संकल्प प्रस्फुटित होगा-'मैं चित्तशुद्धि के लिए ध्यान का प्रयोग कर रहा हूँ।' हम इस संकल्प के साथ चलें तो ध्यान का अवतरण होगा, चित्त की शुद्धि होगी, अन्यथा यह संभव नहीं है। कायोत्सर्ग और ध्यान व्यक्ति में आसक्ति प्रबल होती है। आसक्ति है पदार्थ के प्रति, शरीर के प्रति। मूर्छा प्रबल है। उसकी प्रबलता के कारण ध्यान भी नहीं होता और ध्यान का पहला चरण कायोत्सर्ग भी नहीं होता। कायोत्सर्ग कब संधता है? कोरी शिथिलता सधी, शवासन हो गया। हठयोग का शवासन और जैन परंपरा का कायोत्सर्ग-दोनों की प्रक्रिया में कुछ समानता है, किन्तु मूलभूत अन्तर भी स्पष्ट रहना चाहिए। शवासन में कोरी शिथिलता का प्रयोग है। कायोत्सर्ग शिथिलता के साथ-साथ ममत्व के विसर्जन-भेद-विज्ञान का प्रयोग है। जब तक भेद-विज्ञान नहीं होता, कायोत्सर्ग नहीं सधता। 'आत्मा भिन्न शरीर भिन्न'--यह बुद्धि जब तक नहीं जागती, कायोत्सर्ग नहीं सधता। कायोत्सर्ग का अर्थ है-ममत्व का विसर्जन । शरीर ममत्व का पहला बिन्दु है। 'मेरा शरीर' यहां से ममकार का प्रारंभ होता है और फिर यह इतना विस्तार पा लेता है कि दुनिया के प्रत्येक पदार्थ पर ममकार हो जाता है । वह व्यक्ति का चाहे हो या नहीं, व्यक्ति उसे अपना बनाना चाहता है। यह मेरापन का भाव ममकार का विस्तार है। कायोत्सर्ग तब तक नहीं सधता जब तक ममत्व का विसर्जन नहीं सधता। कायोत्सर्ग का अभ्यास करने वाले प्रत्येक साधक को यह बोध निरंतर होना चाहिए कि मैं केवल शिथिलता का प्रयोग नहीं कर रहा हूं, केवल प्रवृत्ति का विसर्जन या तनाव का विसर्जन नहीं कर रहा हूं, मैं ममत्व विसर्जन के साथ शिथिलता का अभ्यास कर रहा हूं अथवा ममत्व विसर्जन के लिए शिथिलता का अभ्यास कर रहा हूं। जब ममत्व का विसर्जन होगा, कायोत्सर्ग होगा, तब ध्यान का अवतरण होगा? ___ कायोत्सर्ग ध्यान करने के लिए उतना ही जरूरी है जितना कि भोजन के लिए स्वस्थ पाचन-तंत्र का होना जरूरी है। व्यक्ति भोजन करता है। यदि पाचन-तंत्र स्वस्थ नहीं है तो क्या होगा? भोजन करने का कोई परिणाम आएगा? स्वस्थ पाचन-तंत्र होता है तो आहार रस-रूप में परिणमन पाता है। उसका शरीर के लिए उपयोग होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003158
Book TitleTab Hota Hai Dhyana ka Janma
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2001
Total Pages194
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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