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________________ ८४६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे अथ दक्षिणभरतार्द्धागतो भरतो यत्कृवान् तदाह - " तरणं से भरहे" इत्यादि । मूलम् -तरण से भर गया गंगाए महाणईए पञ्चत्थिमिल्ले कुले दुवालसजोयणायामं णव जोयणविच्छिण्णं जाव विजयखंधावारणिवेस करेइ अवसिद्धं तं चैव जाव निहिरयणाणं अट्ठमभत्तं परिण्इ, तरणं से भर गया पोसहसालार जाव विहिरयणे मणसि करेमाणे करेमाणे चिट्ठइति, तस्स य अपरिमियरत्तस्यणा धुअमक्खयमध्वया सदेवा लोको पचयंकरा उवगया णव णिहिओ लोगविस्सुयजसा, तं जहा - " ने सप्पे पंडुअए २, पिंगलए ३, सव्वरयण४, पहपरमे ४ | काले६, अ महाकाले ७, माणवगे महानिहीद, संखे ॥१॥" 'सप्पंमि णिवेसा गामागरणगरपट्टणाणं च । दोणमुहमवाणं संधावारावणगिहाण || १ || गणिअस्स य उप्पत्ती माणुम्माणस्स जं पमाणं च । धण्णस्स य वीआण य उप्पत्ती पंडुए भणिया ॥ २ ॥ सव्वा आभरणविही पुरिसाणं जा य होइ महिलाणं । आसाण य हत्थोण य पिंगलगणिहिमि सा भणिया ||३|| रयणाई सव्वश्यणे चउदस विवराई चक्कवट्टिस्स । उप्पज्जेते एगिंदियाई पंचिदियाई च ||४|| वत्थाणय उप्पत्ती णिष्फती चैव सव्वभत्तीणं । रंगाणय धोव्वाणय सव्वा एसा महापउमे ॥५॥ कले कालण्णाणं सव्वपुराणं चतिसु वि वंसेसु । सिप्पस कम्माणि य तिष्णि पयाए हिय कराणि ॥ ६ ॥ लोहस्स य उप्पत्ता होइ महाकालि आगरा णं च । रुपस्स सुवण्णस्स य मणिमुत्तसिलप्पवालाणं ॥७॥ जोहाणय उपपत्ती आवरणाणं च पहरणाणं च । सव्वाय जुण माणवगे दंडणीई य ॥ ८ ॥ होता है दूसरी बात यह है कि खण्डप्रपात गुहा से प्रवेश करने पर ऋषभकूट आसन्न पड़ता है सो उस पर चतुर्दिक. पर्यन्त साधते ने विना नामन्यास नाम लिखना भी नहीं होता है सु०॥ २६ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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