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________________ प्रकाशिका टोका तु. वक्षस्कारः सु. १८ भरतसैन्यस्थितिदर्शनम् ७५५ पति इत्येवं शीलं दण्डपाति अतर्कितमेव पतिपक्षस्कन्धाबारे पतनशीलम् अनेनास्योस्पतनस्वभावोऽपि सूचितः, तथा 'अणंसुपातिं' अनश्रुपाति तत्र मार्गादि चलनजनितश्रमेषु नाश्रुपातयतीत्येवं शीलम् अनश्रुपाति तथा 'अकालतालुं च' अकालतालुअश्यामतालुकम् श्यामतालुवर्जितं पूर्व रक्ततालुत्वे वर्णितेऽपि यत्पुनकालतालु इति विशेषणं तत्तालुनः श्यामत्वम् अतितरामपलक्षमिति तन्निषेधख्यापनार्थम् च समुच्चये तथा 'कालहेसि' कालहेषि, तत्र काले अराजकानां राजनिर्णयार्थके अधिवासनादिके समये हेपते-शब्दयतोत्येवं शीलं कालहेषि अशुभसमयसूचकं तथा 'जिअनिई गवेसगं' जितनिद्रं गवेषकम् तत्र जितनिद्रा आलस्यं येन तत् जितनिद्रं त्यक्तालस्य मित्यर्थः आलस्य जितम् कार्येषु अप्रमादित्वात् यथा श्रुतार्थे व्याख्यायमाने हयशास्त्रविरोधः दंडपाति अणंसुपाति अकालतालुच कालहेसि जियनिदं गवेसगं) यह अचन्ड पाती-था दण्डपाती था तात्पर्य यही है कि यह विनाविचारे ही प्रतिपक्ष को सेना में दण्ड को तरहआक्रमण करने के स्वभाव बाला था। यहअनुश्रपाती था दुर्दान्त शत्रु सेना को भी देखकर यह कभी आँसु नहीं वहाता था अथवा मार्गादि चलन जन्य श्रम के वशवत्ती हुमा यह कभी घबडाहट से अपनी आँखों से आंसु नहीं निकालता था इसका तालु कृष्णता से वर्जित था समयानुसार ही यह हिनहिनाहट करता था असमय में नहीं अथवा काल में अराजको के राजनिर्णयार्थक अधिवासनादिक के समय में यह अशुभ का सूचक शब्द किया करता था (नियनिदं गवेसगं) यह निद्राविजित नहीं था किन्तु इसने ही निद्रा को आलस्य को अपने वश में कर लिया था । अर्थात् यह आलस्य रहित था-और गवेषक था। मूत्र पुरीष के उत्सर्ग के समय में यह उचित और अनुचित स्थान की खोज करने वाला था "जितनिदं" का अर्थ इसने निद्रा जीत ली थी-अर्थात् इसे निद्रा नहीं आती थी ऐसा हो अर्थ मान लिया जावे तो फिर “सदैव निद्रावशगा, निद्राच्छेदस्य संभवः, जायते संगरे प्राप्ते कर्करस्य च भक्षणे" shi. (अचंडपाडियं दंडपाति अणंसुपातिं अकाल तालु च कालहेसि जियनिहं गवेसर्ग) से અચંડપાતી હત-દંડપાતી હતા, એટલે કે એ વગર વિચાર કર્યો જ પ્રતિપક્ષીની સેના ઉપર દંડની જેમ આક્રમણ કરવાના સ્વભાવવાળો હતો એ અનન્નુપાતી હત. દુત શત્રસેનાને જોઈને પણ એ કદાપિ ૨૩ ન હતો. અથવા માર્ગાદિચલન જન્ય શ્રમથી પીડિત થઈને એ કદાપિ વ્યાકુળ થઈને ૨૭ ન હતું. એને તાલુભાગ કૃષ્ણતાથી વર્જિત હતે. એ સમયાનુસાર જ હણહણાટ કરતો હતો. એટલે કે અસમયમાં એ હણ હણાહટ નહિ કરતે હતે. અથવા કાલમાં અરાજકોના રાજનિર્ણયાર્થીક અધિવાસનાદિકના સમયમાં એ અશુભ सूय५५६ ४२ते। . (जियनिदं गवेसगं) से निद्रावित नहाती. मेणे निदान આલસ્યને પિતાના વશમાં કરી લીધાં હતાં. એટલે કે આલસ્યાદિ રહિત હતે. એ ગષક હતા. માત્ર પરીષના ઉત્સર્ગ સમયે એ ઉચિત અને અનુચિત સ્થાનની શોધ કરનાર હતા. ‘जितनिद्रन अथ निद्रा ती सीधी ती भेटवे मान निद्रा नल भारती હતી, એ જ અર્થ માની લેવામાં આવે તે– Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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