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________________ ६८४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे आभरणाणि रयणाणिय पुणरवि तं सिंधुनामधेज्जं उत्तिण्णे अणहसासणबले तहेव भरहस्स रणो णिवेएइ' तस्मिन् काले सेनापतिः-सेनानीः सुषेणः सविनयः अन्तर्धतस्वामिभक्तिकः सन् 'धेतूण' गृहीत्वा प्राभूतानि आभरणाणि भूषणानि रत्नानि च पुनरपि भूयोऽपि तां सिन्धुनामधेयाम् महानदीमुत्तीर्णः 'अणहसासणबले' अक्षतशासनबलः, तत्र अणह शब्दोऽक्षतपर्यायो देशीशब्दस्तेन अणहम् अक्षतं कचिदपि अखण्डितं-शासनम् आज्ञा बलं च यस्य स तथा तहेव' भरहस्स रन्नो' तथैव यथार स्वयं स्वाधीनं कृतवान् तथा २ भरतस्य राज्ञः-भरताय राज्ञे निवेदयति-कथयति णिवेइत्ता य' निवेद्य च निवे दनं कृत्वा 'अप्पिणिता य पाहुडाई प्राभृतानि अर्पयित्वा च प्रस्थितः ततो भरतो यत्कृतवान् तदाह- 'सक्कारिय सम्माणिए सह रिसे विसज्जिए सगं पडमंडवमईगए' ततः घेत्तूण पाहुडाइं आभरणाणि भूमणाणिय पुणरवि तं सिंधुणामधेग्ज उत्तिण्णो) विनय पूर्वक जिसने अपने हृदय में स्वामी भक्ति धारण की थी ऐसे सुषेण सेनापति ने भेट में प्राप्त हुए सभी प्राभृतांको अर्थात् आभूषणादि को एवं रत्नों को लेकर सिंधुनदी को पार की. (अणयसा. सणबले) वह सुषेण सेनापति अक्षत शासन एवं अक्षत बल वाला था यहां 'अणह' यह शब्द देशी है एवं अक्षत का वाचक हैं शासन शब्द का अर्थ आज्ञा एवं बलका अर्थ सैन्य है इस प्रकार अक्षत शासन एवं बल युक्त सुषेण सेनापति ने (भरहस्स रण्णो णिवेदेइ) जिस क्रम से विजय प्राप्त किया उसे यथाक्रम सभी वृत्तांत आ करके भरत राजा से कहे-(णिवेइत्ता य अप्पिणित्ता य पाहुडाइं सकारिम सम्माणिए सहरिसं विसज्जिए) सब समाचार कह कर और भेटमें प्राप्त सब वस्तुओं को भरत के लिये देकर के उनके द्वारा प्रचुर द्रव्यादिसे सत्कारित हुआ और बहुमान सूचक शब्दों से और वस्त्रा दिकोसे सम्मानित हुआ वह सुषेण सेनापति हर्षसहित विसर्जित होकर-(सगंपडमंडवमइगए) अपने पटमंडपमें-दिब्य पटकृतमंडप में अथवा समयमा सूत्रा२ ४ छ-(ताहे सेणावइसविणओ घेत्तूण पाहुडाई आभरणाणि भूसणाणिय पुनरवि तं सिधुणामधेज उत्तिण्णो। विनय सहित २ पोताना हायनी १२ स्वामिनी ભત ધ રણ કરી રાખી છે. એવા તે સુષેણ સેનાપતિએ ભેટમાં પ્રાપ્ત કરેલા સર્વ પ્રાજૂ ताने सामने भूषवान तम २त्नाने न सिंधू नहीन पा२ ४३१. (अणयसासण बले ) से सुषेय सेनापति क्षत शासन तम अक्षत म सनतो. ही "अणह" આ શબ્દ દેશી શબ્દ છે. અને અક્ષતને પર્યાયવાચી છે શાસન શબ્દને અર્થ આજ્ઞા અને બળનો અથ સૈન્ય છે. આ પ્રમાણે અક્ષત શાસન અને બળ સમ્પન્ન થયેલા તે સુષેણ सेनापति (भरहस्ल रपणो णिवेपइ) २ भथी विभय प्राध्या इता. तभथी अधा समाया। विगतकारशीने द्या.(णिवेइत्ता य अप्पिणित्ता य पाहुडाई सक्कारिए असम्माणिए सहरिसं विसज्जिए) A समाचारे ४ीन भने लेटमा त स परंतु न भने ભરત રાજાને આપી ને તથા તેમના વડે પ્રચુર દ્રવ્યાદિથી સસ્કૃત થઈને બહુમાન સૂચક શબ્દોથી અને વસ્ત્રાદિકથી સન્માનિત થઈને તે સુષેણ સેનાપતિ હર્ષ સહિત રાજા પાસેથી विसति ने (सगं पडमंडयमइगप) पाताना ७५मा हिय ५कृत भयमा अथवा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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