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________________ ६१६ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे होरं भकिणित खरमुहिमुगुदसंखिय पिरली बच्चगपरिवाइगि वंसवेणुविपंचि महति कच्छविभिरियारिगसिरिगतलतालसताल करघाणुत्थिरण' यमकसमकभम्भाहोरम्भावाणिता स्वरमुखो मुकुन्द शखिका पिरलीपच्चकारिवादिनी वंशवेणुविपञ्ची महती कच्छपी भारती रिगसिरिकानलतालकांस्यतालकरध्मनोत्थितेन, तत्र 'जमगसमगे' ति-युगाद्वाद्यमानेभ्यः भम्भा-ढक्का, होरम्भा-महाढक्का, क्यणिता-काचिद् बीणा स्वरमुखी काहलीति प्रसिद्धाः, मुकुन्दो मुरनविशेषः, शखिका-लघुशङ्खरूपा पिरलीवच्चकौ-तृणरूपवाद्य विशेषौ, परिवादिनो सप्ततन्त्रीवोणा वंशः-प्रसिद्धः, वेणुवंश विशेषः, विपञ्चीतितन्त्री वीणा महतीसप्ततन्त्रीका कछपी-कच्छपाकारो वाद्यविशेषः, भारतीवीणा, रिगसिरिका-घर्यमाणवादिनविशेषः, तलं-हस्तपुटं तालाः वाद्यविशेषः, कांस्यताला:-प्रसिद्धाः, करध्मानं-परस्परं हस्तताडनम् एतेभ्यो वादितवाद्यविशेषेभ्य उत्थितेन निःसृतेन उत्पन्नेनेत्यर्थः 'महया सद्दसण्णेिणादेणं' महता शब्दसन्निनादेन तत्र महता विपुलेन शब्दसन्निनादेन ध्वनिप्रतिध्वन्यात्मकेन 'सयलमवि सईसजनों द्वारा घोडों को ताडनां के निमित्त प्रयुक्त किये गये कोड़ो का आबाज भर्स रही थी। तथा ( जमगसमग भंभा होरंभ किणित खामुहि मुगुंदसंवियपिरली कचग परि वाणि वं वेणु विपंचि महतिकच्छ विभिरिया रिंगसिरिगतलतालकंसताल करधाणुस्थिएण) एक साथ वजाये गये भंभा-ढक्का, होरम्भा-महाढक्का, कूणिता-वीगा, खर मुखी- काइलो, मुकुन्द - मुरज विशेष, शङ्खिका-छोटी शंखी, पिरली, वच्चक(ये दोनों वाद्यविशेष घासके तृणों से बनाये जाते हैं) परिवादिनी-सप्ततन्त्री वीणा,वंश-वांसुरी, वेणु-विशेष प्रकार की वांसुरी, विपञ्चो-वीणा महती-कच्छपो-सात तारोंवाली कच्छपकेजैसे आकार की वीणा-तमूरा, भारती वीणा, रिगतिरिका घिसने पर जो वजता है ऐसा वाचविशेष, तर हथेली की आवाज, जिसे ताल कहा जाता है कांस्यताल एवं करध्मान- प्रापस में हाथों का ताडन इन सबके रन्पन हुए (महया सह सन्निनादेन) विपुल शब्दों की ध्वनि एवं प्रतिधनि होती नारहो थो इससे (मय उमवि जीवलोयं હતો. સાઈ વડે ઘડાઓની તાડના-નિમિત્ત જે કોડાએ ફટકારી રહ્યા હતા તેને અવાજ 25 रखी तो तमस (जमग-समग भंभा होरंभ किर्णित खरमुहि मुगुद संखियपिरलीवच्चग परिवाइणि वसवेणुविपंचि महति कच्छविभिरियारिगसिरिग तलतालकंसतालकर धाशुन्थिएण) येही साथे 4113414 मावा AHI-681, २ मा - माद, शित.-वी। भरभुड़ा-दी, भुन्ह-भु२४ Cशष, श४ि-छोटी-शमी, विरी, वय (सन्या पन्न વાદ્ય-વિશે ઘાપના તૃણોથી બનાવવામાં આવે છે.) પરિવાદિની-સતન્ની વીણુ,-વંશ વાંસળી વેણુ-વિશેષ પ્રકારની-વાં મળી, વિચી-વીણા, મહતી-કુછવી–સાતતારોવાળી છપ જેવા આકારવાળી વીણ, તંબૂરો, ભારતી વીણ, રિગસિરિકા-ઘસવાથી જે વાગે છે એ જાતનું વાઘવિશેષ, તલ-હથેળીના અવાજ કે જેને તાલ કહેવામાં આવે છે, કાંસ્યતાલ તેમજ કરपान-५१२५२ थानु तन, में अब भी उत्पन्न थये। (महया सहसन्निनादेन) विधु शहाने पनि मन प्रतिवान शह 25 २यो हता, मेथी (सयलमवि जीवलोयं परयंते) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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