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________________ प्रकाशिका टीका तृ. वक्षस्कारः सू०६ स्नानादिनिवत्यनन्तरीयभरतकार्यनिरूपणम् ५१५ क्यितः-सञ्जातचाण्डिक्यः अतिक्रोधयुक्त इत्यर्थः, 'कुविए' कुपितः-प्रवृद्ध क्रोधोदयः 'मिसिमिसेमाणे त्ति' कोपाग्निना दीप्यमान इव दन्तरोष्ठं दशन् मिसमिसशन्द कुर्वाण इत्यर्थः 'तिवलियं भिउडि पिडाले साहरइ' त्रिवलिकां तिस्रो वलयः प्रकृष्ट क्रोधोदितललाटरेखा रूपा यस्यां सा तथा तां तथाविधां भृकुर्टि संहरति निवेशयति आकर्षयतीत्यर्थः 'संहरित्ता' संहृत्य ‘एवं वयासी' एवमवादीत् उक्तवान् 'केस णं' इत्यादि 'केस णं' भो एस अपत्थियपत्थए दुरंतपंतलक्खणे होणपुण्णचाउद्दसे हिरिसिरि. परिवज्जिए जेणं मम इमाए एयाणुरूवाए दिव्वाए देविड्ढीए दिव्वाए देवजुईए दिव्वेणं दिव्वाणुभावेणं लद्धाए पत्ताए अभिसमण्णागयाए उपि अपपुस्सुए भवणंसि सरं णिसिरइत्ति का सीहासणाओ अब्भुढेइ' कः खलु भो एष: अप्रार्थितप्रार्थकः दुरन्तप्रान्तलक्षणः हीनपुण्णचातुर्दशः ही श्री परिवजितः यः खलु मम अस्या एतद्पायाः दिव्यायाः देवऋद्धयाः दिव्याया देवधुतेः दिव्येन देवानुभावेन लब्धायाः प्राप्ताया अभिसमन्वागताया उपरि आत्मना उत्सुकः भवने शरं निसृजतीति कृत्वा रक्त-आग-बबूला हो गया-क्रोध के उदय से जग गई है क्रोध रूपी अग्नि जिसकी ऐसा बन गया-जिसने यह वाण फेंका है उसके ऊपर व गुस्सेमें भर गया -अत एव उसके रूपमें रौद्रभाव झलकने लग गया और उदित क्रोध के वशवर्ती होकर वह दांतों से अपने होठों को डसता हुआ मिसमिसाने लग गया (तिवलिय भिउडिं णिडाले साहरइ) उसी समय उसकी भ्रकुटि त्रिवाल युक्त होकर ललाट पर चढ गई - टेडी हो गई ( संहरित्ता एवं वयासो) भृकुटि ललाट पर चढाकर वह फिर ऐसा सोचने लगा ( केसणं भो एस अपस्थियपत्थए दुरंतपतलक्षणे होणपुण्णचाउद्दसे हिरिसिरिपरिवज्जिए जेणं मम इमाए एयाणुरूवाए दिवाए देविद्धोए दिव्याए देवजुईए दिवेणं देवाणुभावेणं लद्वाए पत्ताए अभिसमण्णागपाए उप्पि अप्पुस्सुए भवणंसि सरंणितिरइत्ति कटु सीहासणाओ अब्भुटेइ) अरे ! ऐसा यह- कौन अप्रार्थित प्रार्थी-मरण का अभिलाषो हुआ है - अर्थात् ऐसा कौन है जो मेरे साथ युद्ध का अभिलाषी होकर अपनी अकाल (दृष्ट्वाधने (आसुरत्तेरुठे चंडक्किए कुविए मिसमिसे माणेति) ते अधथी २४त २४ गया. ક્રોધના ઉદયથી ક્રોધ રૂપી અગ્નિ જેમાં પ્રકટ થયા છે. એવે તે થઈ ગયે. જેણે આ બાણ ફેંકયું તેની ઉપર તે ક્રોધાવિષ્ટ થઈ ગયો. એથી તેના રૂપમાં રૌદ્રભાવ ઝળકવા લાગ્યો અને કોધવશવતી થઇને તે દાંત પીસવા લાગ્યા અને હોઠ કરડવા લાગે (તિe૪ નવ णिडाले साहरइ) ते मत ना भूटिविनास युत थ 8 साट ५२ २ढी - १: 20 मई (संहरित्ता एवं घयासी) मृकुटि सट ५२ यढावीन तो मा प्रभावी वियार ध्या. (केस ण भो एस अपत्थियपत्थए दुरंतपंतलक्खणे हीणपुण्णचाउदसे हिरिसिरिपरिवज्जिए जे ण मम इमाए एयाणुरूवाप दिव्वाए देविद्धीए दिव्वाप देवजुईए दिवेणं देवाणुभावेणं लद्धाए पत्ताए अभिसमण्णागयाए उप्पिं अपुस्सुए भवणंसि सरं णिसिरइत्ति कटु सीहासणाओ अब्भुढेइ) अरे ! अस माथित प्राथी'મરણાભિલાષી થયો છે. એટલે કે એ કેણ છે કે જે મારી સાથે યુદ્ધ કરવા તૈયાર થયે Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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