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________________ ५७४ जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रे भरतेन राज्ञा एवं उक्ताः सन्तः हृष्टतुष्टचित्तानन्दिताः राज्ञोक्तं सर्वमाभिषेक्य हस्तिसेनादि सज्जीकरणरूपं कार्य कृत्वा राज्ञे तामाज्ञप्तिकां प्रत्यर्पयन्तीति, (तएणं से भरहे राया जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ) ततः खलु स भरतो राजा यत्रैव मज्जनगृहं तत्रैवोपागच्छति (उवागच्छित्ता) उपागत्य (मज्जणघरं अणुपविसइ) मज्जनगृहमनुप्रविशति, (अणुपसित्ता) अनुप्रविश्य, (समुतजालाभिरामे तहेब जाव धवलमहामेहणिगए इव ससिव्य पियदसणे णवरई मज्जनघराओ पडिनिक्खमइ) समुतजालाभिरामे तथैव यावत् धवलमहामेघ निर्गत इव शशोव प्रियदर्शनो नरपतिः मज्जनगृहात् प्रतिनिष्क्रामति, तत्र समुक्तेन मुक्ताफलयुक्तेन जालेन गवाक्षेण अभिरामः मुन्दरो यस्तस्मिन् तथैव यावत्पदात् विचित्रमणिरत्नकुट्टिमतले अतएव रमणीये एतादृशविशेषणविशिष्टे स्नानमण्डपे नानामणिरत्नभक्तिचित्रे स्नानपीठे सुखेनोपविश्य स्नपितः स्नानानन्तरं च धवलमहामेघात् स्वच्छशरन्मेवात् निर्गत इव शशीव चन्द्रइव प्रियदर्शनो नरपतिः भरतो राजा सुधाधवलीकृतात् मज्जनगृहात्प्रतिनिष्क्रामतीतिभावः (पडिणिक्खमित्ता) प्रतिनिष्क्रम्य निर्गत्य में आनन्दित हुए और राजा भरत ने जैसा करने का उन्हे आदेश दिया था बैसा सत्र उन्होंने करके पीछे इसकी खबर भरत राजा के पास भेज दी (तएणं से भरेहे राया जेणेव मज्जणघरे तेणेव उवागच्छइ) इसके बाद वे भरत राजा जहां पर स्नानगृह था-बहां पर गये (उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ, अणुपविसित्ता समुत्तजालाभिरामे तहेव जाव धवलमहामेहणिग्गए इव ससिव्व पिंय दंसणे णरवई मज्जणघराओ पडिणिक्खमइ) वहाँ जाकर वे मज्जनगृह में प्रविष्ट हुए । प्रविष्ट होकर वे उस स्नान मंडप में कि जिसकी खिरकियां मुक्ताफल से खचित हो रही हैं और इसी कारण जो बड़ा मनोरम बना हुआ है , एवं यावत्पदानुसार जो विचित्र मणिरत्नों की भू मवाला है रखे हुए नानामणियों की रचनावाले स्नान पीठ पर सुख से बैठ गये । वहां पर उन्होंको अच्छी तरह से स्नान कराया गया स्नान के बाद फिर वे भरत राजा धबल महामेघ-स्वच्छ शरद काल के मेध से निर्गत शशी-चन्द्रमा की तरह उस मज्जनगृह से बाहर निकले । उस समय वे देखने में बड़े ही सुहावने लग रहे थे। (पडिणिक्खमित्ता ચિત્તમાં આનંદિત થયા અને રાજા ભરતે જે પ્રમાણે કરવાને તેમને આદેશ આપે હતે. त मधु सम्पन्न रीने तेभर मरत ना पासे सूचना मादी. (त एण से भरहे राया जेणेव म जणघरे तेणेव उवागच्छद)त्यारा ते भरत २amrयां स्नान गृड हेतु, त्यां गया. (उवागच्छित्ता जेणेव मज्जणधरं तेणेवयअणुपविसइ, अणुपविसित्ता समुत्तजालाभिरामे तहेव जाव धवल महामेहणिग्गए इव ससिव्य पियदंसणे णरवई मज्जणधराओ पडिणिक्खमई) त्यां न ते मन मा प्रविष्ट था. प्रविष्ट थने ते नी माशय। મુક્તાફળથી ખચિત છે અને એથી જ જે અતી મનોરમ લાગે છે તેમજ યાવત્ પદાનસાર જે વિચિત્ર મણિરત્નની ભૂમિવાળું છે એવા. મંડપમાં મૂકેલા નાના મણિઓથી ખચિત સ્નાન પીઠ ઉપ૨ સુખપૂર્વક બેસી ગયો. ત્યાં તે રાજાને સારી રીતે અને કરાવી વામાં આવ્યું. સ્નાન કરાવ્યા બાદ તે ભરત ૨ાજ ધવલ મહામેઘ-સ્વછ શરત કાલીન મેઘથી નિર્ગત શશી-ચંદ્ર-ની જેમ તે મજજનગૃહમાંથી બહાર નીકળ્યા. તે સમયે તેઓ www.jainelibrary.org Jain Education International For Private & Personal Use Only
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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