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________________ ધર ग्धानि न तु रुक्षाणि, 'गोसीसवरचं दणकट्ठाई' गोशीर्षवरचन्दनकाष्ठानि-गोशीर्ष = गोशी नाम्ना प्रसिद्धं यदूवरं श्रेष्ठं चन्दनं तस्य काष्ठानि 'साहरह' समाहरत = समानयत 'साहरिता' समाहृत्य 'तओ चिइगाओ' तिस्रः चितिकाः = चितात्रयं 'रएह' रचयत, तत्र 'ए' एकां चितिकां 'भगवओ तित्थयरस्स' भगवतस्तीर्थकरस्य कृते रचयत, 'एगं' एकां चितिकां 'गणहरस्स' गणधराणां कृते, 'एगं' एकां च चितिकाम् ' अवसे साणं' अवशेषाणां तीर्थकर गणधरभिन्नानाम् 'अणगाराणं' अनगाराणां - साधूनां कृते रचयत । 'तर णं ते भवणवर जाव वेमाणिया' ततः खलु ते भवनपति यावद् वैमानिकाः भवनपतिव्यन्तर ज्यौतिष वैमानिका 'देवा णंदणवणाओ सरसाई- गोसीसवर चंदणकट्ठाई सारंति' देवा नन्दनवनात् सरसानि गौशीर्षवरचन्दनकाष्ठानि समाहरन्ति 'साहरित्ता' समाहृत्य 'तओ चिरगाओ रएंति' तिखः चितिकाः रचयन्ति । 'एगं भगवओ तित्थयरस्स' atri fafari भगतस्तीर्थकरस्य ऋषभदेव स्वामिनः कृते, 'एगं गणहराणं' एकां चितिकां गणधराणां कृते, 'एगं अवसेसाणं- अणगाराणं' एकां च चितिकाम् अवशेषाणाम् नगाराणां कृते रचयन्ति । 'तरणं से सक्के देविदे देवराया आभियोगे' ततः खलु स शक्रो देवेन्द्रो देवराज अभियोग्यान् = किङ्करभूतान् 'देवे' देवान् 'सद्दावेइ' शब्दयति, 'सद्दावित्ता' शब्दयित्वा ' एवं ' एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण 'वयासी' अवादीत् उक्तवान् 'खिप्पामेव ' मनसे सरस गोशीर्षचन्दन की लकडियों को लाओ और "साहरिता" लाकरके " ओ रएइ" तीन चिताओं की रचना करो; इनमें "एगं भगवओ तित्थयरस्स" एक प्रभु तीर्थंकर की, "एगं गणहरस्स" एक गणधर की और "एगं अवसेसाणं अणगाराणं" एक अवशेष अनगारों की' तब उन भवनपति से लेकर समस्त वैमानिक देवों ने नन्दन वन में जाकरके वहां से सरस गोशीर्षचन्दन की लकड़ियों को लेकर पूर्वोक्त तीन चिताओं की रचना की, एक भगवान् तीर्थ · कर के लिये, दूसरी गणधरों के लिये और तीसरी इन दोनों से भिन्न शेष अनगारों के लिये "तएण से सक्के देविंदे देवराया आभिओगे देवे सदावेइ" इसके बाद देवेन्द्र देवराजशक्र ने अभियोग्य जाति के देवों को बुलाया - "सद्दावित्ता एवं वयासी- " बुलाकर उसने ऐसा कहा ओ નુપ્રિયા, તમે સ મળીને શીઘ્ર નન્દન વનમાંથી સરસ ગેાશીષ ચન્દનના લાકડાએ લાવે અને 'साहरिता' सावीने 'तओ बिइगाओ' भित्ता तैयार । 'एग भगवओ तित्थयरस्त' भेड अलु तीर्थ ४२ भाटे 'पगं गणहरस्स' थे गनुधर भाटे भने 'एग अवसेसाण अण गाराण' थे अवशेष अनगारे। भाटे. त्यार माह ते भवनयतिमोथी भांडीने सर्व वैमानि વેએ નન્દન વનમાં જઈને ત્યાંથી સરસ ગેાશીષ ચન્દનના લાકડાએ લાવીને પૂર્વકિત ત્રણ ચિતાની રચના કરી એક ભગવાન તીર્થંકર માંટે, એક ગણધર માટે અને એક येथे अन्नेथी भिन्न शेष मनगारी भाटे. 'तपण से सक्के देविदे देवराया आभिभोगे देवे सहावेह' त्यार माह देवेन्द्र देवरान शडे मालियोग्य लतिना देवाने मोसाध्या 'सद्दावित्ता एवं बयासी' मसावी ने तेभने भा प्रभाो उधु - 'विप्पामेव भो देवाणुपियया खिरोदगसमु Jain Education International जम्बूद्वीपप्रशमसुत्रे For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003154
Book TitleAgam 18 Upang 07 Jambudveep Pragnapti Sutra Part 01 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanhaiyalal Maharaj
PublisherJain Shastroddhar Samiti Ahmedabad
Publication Year1980
Total Pages994
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_jambudwipapragnapti
File Size29 MB
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