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________________ २६६ अन्तु ॥ प्रदटान्नति सत्यमाणमु चलमायुं सौचमौदार्य्यममु दिटं तन्नले निन्दुवेम्ब गुणसंघातङ्गलं ताल्दिलोकद वन्दि - प्रकरङ्गलं तणिपि कः केनार्थियेन्दित्तु चागद पेम्पिन्दमे गङ्ग- राजनेसेदं विश्वम्भराभागदोलू ॥ ८ ॥ तलकार्ड सेलदन्ते काङ्गनोलकोण्डाबं... यं तुल्दिदा लदिं चेङ्गिरियं कलल्चि नरसिङ्गङ्गन्तकावासमं । निलयं माडि निमिचिर्च विष्णु- नृपनान्यामार्गदिं गङ्गमण्डलमं कोण्डन राति-यूथ-मृगसिङ्ग गङ्ग दण्डाधिपं ॥ ८ ॥ प्रातन पिरियण्न ॥ श्रवण बेल्गोल के आसपास व्यापित- दिग्वलय-यश श्री- पतिवितरण- विनोद - पति धनपति वि द्यापतियेनिम बम्म च मूपति जिनपतिपदाब्जभृङ्गननिन्द्य ॥ १० ॥ यातन सति ॥ परम-श्री- जिननाप्त गुरु श्री भानुकीर्त्तिदेव लक्ष्मी करनेनिप्प बम्स- देवने Jain Education International " पुरुषनेनलु नागणब्बे पडेदले जसमं ॥ कन्द || भासतिगे पुण्यवतिगे वि लासद कणि सकल-भव्य-सेव्यं गर्भा For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
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