SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 309
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ चन्द्रगिरि पर्वत पर के शिलालेख १२२ ( उत्तरमुख ) श्रीसूलसङ्घद देशीयगणद वक्रंगच्छद केाण्डकुन्दान्वयद परियलिय वडदेवर बलिय । देवेन्द्र सिद्धान्तदेवरु | अवर शिष्यरु वृषभनन्द्याचार्य्यरेम्ब चतुर्मुखदेवरु । प्रवर शिष्यरु गोपनन्द - पण्डितदेवरु । अवर सधर्म्मरु महेन्द्र-चन्द्रपण्डित-देवरु | देवेन्द्र-सिद्धान्तदेवरु । शुभकीर्त्ति पण्डित देवरु - माघनन्दि- सिद्धान्त - देवरु | जिनचन्द्र पण्डित - देवरु | गुणचन्द्र-मलधारि-देवरु | अवरोलगंमाघनन्दि- सिद्धान्तदेवरशिष्यरु | त्रिरत्ननन्दि - भट्टारक - देवरु । अवर सधर्मरु कल्याणकीर्त्ति भट्टारक देवरु | मेघचन्द्र पण्डित - देवरु | बालचन्द्र-सिद्धान्त-देवरु । आ गोपनन्दि पण्डित - देवर शिष्यरु जसकी र्त्ति पण्डित - देवरु । वासवचन्द्र पण्डित - देवरु । चन्दनन्दि पण्डितदेवरु | हेमचन्द्र - मलधारि गण्डविमुक्त रेम्ब गौलदेवरु त्रिमुष्टि-देवरु | [ यह लेख कुछ श्राचार्यों की प्रशस्तिमात्र है । लेख के अन्तिम भाग में उपरिवर्णित श्राचार्यों के नामों की पुनरावृत्ति है । ये सब श्राचार्य मूलसंघ देशिय गए और वक्र गच्छ के देवेन्द्र सिद्धान्तदेव के समकालीन शिष्य थे । चतुर्मुखदेव इसलिए कहलाये क्योंकि उन्होंने चारों दिशाओं की ओर प्रस्तुत मुख होकर आठ आठ दिन के उपवास किये थे । गोपनन्दि श्रद्वितीय कवि और नैयायिक थे जिनके सम्मुख कोई बादी नहीं ठहरते थे । प्रभाचन्द्र धाराधीश भोजदेव द्वारा सम्माहुए थे | मावनन्दि, और जिनचन्द्र भारी कवि, नैयायिक और नित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003151
Book TitleJain Shila Lekh Sangraha 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain
PublisherManikchand Digambar Jain Granthamala Samiti
Publication Year
Total Pages662
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & History
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy