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________________ सत्य की खोज : अनेकान्त के आलोक में बोल नहीं सकता । नाड़ी - संस्थान में क्रिया की क्षमता है । किन्तु उसमें प्राण-शक्ति का प्रवाह न हो तो वह कार्य नहीं कर सकता। आंख देखती है, कान सुनते हैं । सब इन्द्रियां अपना-अपना काम करती हैं। किन्तु उनमें यदि प्राण-शक्ति का प्रवाह न हो तो इन्द्रियां कुछ भी नहीं जान सकती । 1 एक ही प्राणधारा अनेक तंत्रों में प्रवाहित होने के कारण अनेक नामों से अभिहित होती है । मन में प्राण का प्रवाह होता है तब हम चिंतन करते हैं। यह है 'मन प्राण' । वाणी में प्राण का प्रवाह होता है तब हम बोलते हैं। यह है 'वचन प्राण' । शरीर में प्राण का प्रवाह होता है तब हम क्रिया करते हैं । यह है 'शरीर - प्राण' । श्वास- संस्थान ७४ प्राण का प्रवाह होता है, तब हम श्वास लेते हैं । यह है 'श्वास प्राण' । आहार- संस्थान में प्राण का प्रवाह होता है तब हम जीवन धारण करते हैं । यह है ' आयुष्य प्राण' । इन्द्रियों में प्राण का प्रवाह होता हैं तब हम देखते हैं, सुनते हैं, सूंघते हैं, चखते हैं और स्पर्श-बोध करते हैं । यह हैं 'इन्द्रिय प्राण ।' जो व्यक्ति आध्यात्मिक साधना में लीन होता है, उसकी प्राण-शक्ति विकसित हो जाती है । कोई साधक केवल प्राण का प्रयोग करता है, उसकी भी प्राण-शक्ति विकसित हो जाती है । प्राणायाम उसके विकास का बहुत बड़ा साधन है । प्राण-शक्ति का विकास बहुत आवश्यक है। जिसकी प्राण-शक्ति विकसित होती है वह आन्तरिक खोज में बहुत आगे बढ़ सकता है । ६. प्राणायाम प्राणवायु को लेना (पूरक), छोड़ना (रेचक), उसे भीतर और बाहर रोकना (कुम्भक) — इन तीन क्रियाओं का नाम प्राणायाम है। प्राणवायु के प्रयोगों से प्राणशक्ति की अग्नि प्रज्वलित होती है, इसलिए प्राणायाम का मूल्य है। प्राणवायु का ईंधन जितना अधिक मात्रा में मिलता है उतना ही प्राण-मिश्रित चैतन्य विकसित होता है । जैन साधकों ने तीव्र प्राणायाम को अस्वीकार किया है। उन्होंने श्वास को मन्द, सूक्ष्म या दीर्घ करने को उपयोगी माना है। विकास का रहस्य है प्राणधारा को नाड़ी-संस्थान में प्रवाहित करना । प्राणवायु फेफड़ों के नीचे (तनुपट (Diaform) तक हो जाता है । वह समूचे शरीर में नहीं जाता। प्राण, अपान, ऊदान, व्यान और समान - इनका शरीरगत जो प्रवाह है, वह प्राणवायु नहीं किन्तु प्राणधारा है। इस पर ध्यान केन्द्रित करना और इसे उत्क्रान्ति की दृष्टि से विभिन्न नाड़ी-चक्रों में प्रवाहित करना साधन का महत्त्वपूर्ण अंग है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003147
Book TitleSatya ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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