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________________ साधना का मार्ग ६९ 1 हो जाता है । उस दशा में स्थूल शरीर को सर्दी-गर्मी या पीड़ा का कोई संवेदन नहीं होता । रोग भी कर्म-शरीर में उत्पन्न होता है और स्थूल शरीर में व्यक्त । वासना कर्म - शरीर में उत्पन्न होती है और व्यक्त होती है स्थूल शरीर में । कर्म- शरीर और स्थूल- दोनों का सम्बन्ध हमारी विभिन्न अवस्थाओं का निर्माण करता है । हम समस्या और समाधान शरीर में खोजते हैं, जबकि उन दोनों का मूल कर्म - शरीर में होता है । कर्म- शरीर हमारे चिन्तन, भावना, संकल्प और प्रवृत्ति से प्रकंपित होता है । प्रकम्पन-काल में वह नए परमाणु को ग्रहण (बंध) और पूर्व - गृहीत परमाणुओं का परित्याग (निर्जरा) करता है। चिन्तन, भावना, संकल्प और प्रवृत्ति - ये पवित्र होते हैं तब कर्म - शरीर के परमाणु अधिक मात्रा में परित्यक्त होते हैं और उसके आवारक और अवरोधक पटल विरल हो जाते हैं । उसका प्रभाव स्थूल शरीर के ज्ञान- केन्द्रों पर भी होता है । उसके ज्ञान- केन्द्र (या चक्र) विकसित हो जाते हैं। आवारक पटल के विरल और ज्ञान - केन्द्रों के विकसित होने पर चेतना की कार्य-क्षमता बढ़ जाती है । स्थूल शरीर के ज्ञान केन्द्रों का विकास करने से चेतना की कार्य-क्षमता नहीं बढ़ती । उसकी कार्य-क्षमता को प्रकंपित करने और उसके आवारक पटल को अधिक विरत करने से बढ़ती है। हम किसी ज्ञान- केन्द्र पर मन को एकाग्र कर ध्यान करते हैं, उससे केवल स्थूल शरीर का ज्ञान केन्द्र ही विकसित नहीं होता किन्तु कर्म - शरीर का ज्ञान - केन्द्र भी विकसित होता है । इन केन्द्रों के विकास का उपाय केवल ध्यान ही नहीं है । इनका विकास ध्यान से भी होता है, तपस्या से भी होता है, भावना से भी होता है और वीतराग आत्मा के साथ तादात्म्य स्थापित करने से भी होता है। हठयोग की साधना-पद्धति में स्थूल शरीर के चक्रों को जागृत करने पर अधिक बल दिया गया है। जैन साधना-पद्धति कर्म - शरीर को विरल करने पर आधारित है । इसलिए इसमें हठयोग की अपेक्षा राजयोग के तत्त्व अधिक विकसित हुए हैं भगवान् महावीर का साधना - सूत्र है - कर्म - शरीर को प्रकंपित करो । हठयोग का प्रभाव प्राणशक्ति पर अधिक होता है। हठयोगी में प्राणशक्ति का चमत्कार होता है, पर चेतना की निर्मलता - क्रोध, मान, माया और लोभ की अल्पता नहीं होती । कर्म- शरीर का मूल बीज क्रोध, मान, माया और लोभ है। जैन साधना-पद्धति का आदि बिन्दु और अन्तिम बिन्दु इस कषाय-चतुष्टयी का उन्मूलन है। इसका उन्मूलन करने वाला वीतराग होता है । उसमें प्राण शक्ति का चमत्कार नहीं हो सकता किन्तु उसकी चेतना निर्मल और पवित्र हो जाती है । उसमें ज्ञान केन्द्रों के माध्यमों का सहारा लिए बिना सर्वात्मना बाह्य जगत् को जानने की क्षमता विकसित हो जाती Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003147
Book TitleSatya ki Khoj
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1997
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Spiritual
File Size6 MB
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